एक दुराशा अबीर गुलालकी झोलियां, भरे रङ्गकी पिचकारियां लिये अपने राजाके घर होली खेलने जाये तो कहां जाये ? राजा दूर मात समुद्र पार है। राजाका केवल नाम सुना है । न राजाको शिवशंभुने देखा, न राजाने शिवशंभुको । खैर राजा नहीं, उसने अपना प्रतिनिधि भारतमें भेजा है। कृष्ण द्वारिकाहीमें हैं, पर उध्वको प्रतिनिधि बनाकर ब्रजबासियोंको सन्तोष देनेके लिये ब्रजमें भेजा है। क्या उस राज-प्रतिनिधिके घर जाकर शिवशंभु होली नहीं खेल सकता ? ओफ ! यह विचार वैसा ही बेतुका है, जैसे अभी वामें होली गाई जाती थी ! पर इसमें गानेवालेका क्या दोष है ? वह तो समय समझकर ही गा रहा था। यदि वसन्तमें वर्षाकी झाड़ी लगे तो गानेवालोंको क्या मलार गाना चाहिये ? सचमुच बड़ी कठिन समस्या है। कृष्ण है, उध्व है, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते । राजा है, राज- प्रतिनिधि है, पर प्रजाकी उन तक रसाई नहीं ! सूर्य्य है, धूप नहीं । चन्द्र है, चान्दनी नहीं ! माई लार्ड नगरहीमें है, पर शिवशम्भु उसके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उसके घर चलकर होली खेलना तो विचारही दुसरा है। माई लार्डके घर तक प्रजाकी बात नहीं पहुंच सकती, बातको हवा नहीं पहुंच सकती। जहांगीरकी भौति उसने अपने शयनागार तक ऐसा कोई घण्टा नहीं लगाया, जिसकी जञ्जीर बाहरसे हिलाकर प्रजा अपनी फरयाद उसे सुना सके । न आगेको लगानेकी आशा है। प्रजा- की बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। प्रजाके मनका भाव वह न समझता है, न समझना चाहता है। उसके मनका भाव न प्रजा समझ सकती है, न समझनेका कोई उपाय है । उसका दर्शन दुलभ है। द्वितीयाके चन्द्रकी भांति कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ानेसे उसका चन्द्रानन दिख जाता है, तो दिखजाता है। लोग उङ्ग- लियोंसे इशारे करते हैं कि वह है। किन्तु दुजके चान्दके उदयका भी [ २०५ ]
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