गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास रहा। हां, एक यादगार उस पत्रकी काशीमें बहुत भारी है ; जिसके द्वारा ज्योतिष और संस्कृत भाषाके सिवा हिन्दीका भी बहुत कुछ उपकार हुआ और होता है। वह काशीके प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकरजी द्विवेदी हैं। आपके चाचाजीके हाथमें ज्योंही डाकियेने सुधाकर पत्रका पहला नम्बर लाकर दिया, त्योंही घरके भीतरसे उनको भतीजा होनेकी खबर मिली। आपने भतीजेका नाम उस पत्रके नाम पर सुधाकर रखा । “सुधाकर” पत्रकी कोई संख्या हमने नहीं देखी और न उसकी भापाहीका कुछ नमूना हमें मिला। यदि मिलता तो अच्छा होता। क्योंकि यह जाननेकी वात है कि लल्लूजीसे एकदम ४८ साल बाद जो हिन्दी लिखी वह किस ढङ्गकी थी। कविवचनसुधा अन्तको स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्रजीके समयमें हिन्दीके भाग्यने पलटा खाया। उन्होंने हिन्दीको उत्तम बनानेकी चेष्टा की। कई एक अच्छी अच्छी पोथियां लिखकर उन्होंने सुन्दर हिन्दीका एक नमूना खड़ा किया। फिर और लगातार कई एक पुस्तक लिखकर उसको पुष्टि की। यद्यपि स्वर्गीय राजा लक्ष्मणमिह महोदयने सन १८६३ ई. में शकुन्तलाका हिन्दी अनुवाद करके फिर एक अच्छी हिन्दीका नमूना उपस्थित किया था। पर उसका उस समय अधिक प्रभाव नहीं हुआ। मुख्य काम बाबू हरिश्चन्द्रजीके हाथोंहीसे हुआ। कहा जा सकता है कि हिन्दी नहीं थो, बाबू हरिश्चन्द्र ने उसे पैदा किया । यदि हिन्दी होती तो राजा शिवप्रसाद नागरी अक्षरोंके बड़े प्रेमी होकर उर्दू में क्यों उलझे रहते ? हिन्दीका एक उत्तम रूप खड़ा होते ही बाबू हरिश्चन्द्रजीको अखबारका ध्यान आया । इसीसे सन् १८६८ ई० में उन्होंने “कविवचन- सुधा" मासिक पत्रके आकार में निकाला । उसमें उस समय प्राचीन [ ३१४ ]
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