जातीय राष्ट्रिय-भावना पास चनेके खेतोंमें बालक कुछ जाते दौड़ दौड़के सुरुचि साग खाते घर लाते । आपसमें सब करते जाते खिल्लो ठट्ठा वहीं खोलकर खाते मक्खन रोटी मट्ठा । बात करते कभी बैठके बांधे पाली साथ साथ खेतोंकी करते थे रखवाली। कहते हर्षित सभी देख फली फुलवारी आ आ प्यारी वसन्त सब ऋतुओंमें प्यारी ।। हाय समयने एक साथ मब बात मिटाई एक चिन्ह भी उसका नहीं देता दिखलाई । कटे पिटे मिट गये वह सब ढाकोंके जङ्गल जिनमें करते थे पशुपक्षी नितप्रति मङ्गल । धरतीके जीमें छाई ऐसी निठुराई उपजीविका किसानोंकी सब भांति घटाई । रहा नहीं तृण न्यार कहीं कृषकोंके घरमें पड़े ढोर उनके गोभक्षककुलके करमें। जिन सरसोंके पत्तोंको डङ्गर थे खाते उनसे वह अपना जीवन हैं आज बिताते। लवण बिना वह भी हा रह जाता है फीका नहीं पूछता भाव आज कोई उनके जीका। जिन खेतोंमें आय पथिकगण बहु सुख पाते फल खाते सुसताते सानन्द घरको जाते। गांवोंके लड़के जब उन खेतोंमें आते ढेरों सरसों तोड़ तोड़ घर में ले जाते। [ ६३७ ]
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