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त्रिया- चरित्र
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मुझे यकीन है कि तू अब भी लौट आयेगी। फिर सजीव कल्पनाओं का एक जमघट उसके सामने आया--वह नाजुक अदायें, वह मतवाली आँखें, वह भोली-भोली वाते, वह अपने को भूली हुई-सी मेहरबानियाँ, वह जीवनदायी मुस्कान, वह आशिकों जैसी दिलजोइयाँ, वह प्रेम का नशा, वह हमेशा खिला रहनेवाला चेहरा, वह लचक-लचक- कर कुएँ से पानी लाना, वह इन्तजार की सूरत, वह मुहब्बत से भरी हुई बेचैनी-- यह सब तस्वीरें उसकी निगाहों के सामने हसरतनाक बेताबी के साथ फिरने लगीं। मगनदास ने एक ठण्डी साँस ली और आँसुओं और दर्द की उमड़ती हुई नदी को मर्दाना ज़ब्त से रोककर उठ खड़ा हुआ। नागपुर जाने का पक्का फैसला हो गया। तकिये के नीचे से सन्दूक की कुंजी उठायी तो काग़ज़ का एक टुकड़ा निकल आया। यह रम्भा की विदा की चिट्ठी थी --

प्यारे,

मैं बहुत रो रही हूँ। मेरे पैर नहीं उठते, मगर मेरा जाना जरूरी है। तुम्हें जगाऊँगी तो तुम जाने न दोगे। आह कैसे जाऊँ, अपने प्यारे पति को कैसे छोडूं ! किस्मत मुझसे यह आनन्द का घर छुड़वा रही है, मुझे बेवफा न कहना, मैं तुमसे फिर कभी मिलूंगी। मैं जानती हूँ कि तुमने मेरे लिए यह सब कुछ त्याग दिया है। मगर तुम्हारे लिए ज़िन्दगी में बहुत कुछ उम्मीदें हैं। मैं अपनी मुहब्बत की धुन में तुम्हें उन उम्मीदों से क्यों दूर रक्खू । अब तुमसे जुदा होती हूँ ! मेरी सुध मत भूलना। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूगी। यह आनन्द के दिन कभी न भूलेंगे। क्या तुम मुझे भूल सकोगे?

तुम्हारी प्यारी
 
रम्भा
 

मगनदास को दिल्ली आये तीन महीने गुज़र चुके हैं। इस बीच उसे सबसे बड़ा जो निजी अनुभव हुआ वह यह था कि रोजी की फिक्र और धन्वों की बहुतायत से उमड़ती हुई भावनाओं का जोर कम किया जा सकता है। डेढ़ साल पहले का बेफिक्र नौजवान अब एक समझदार और सूझ-बूझ रखनेवाला आदमी बन गया था। सागर घाट के उस कुछ दिनों के रहने से उसे रिआया की उन तकलीफों का निजी ज्ञान हो गया था जो कारिन्दों और मुख्तारों की सस्तियों की वदौलत उन्हें उठानी पड़ती हैं। उसने उसे रियासत के इन्तज़ाम में बहुत मदद दी और गो कर्मचारी दवी ज़बान से उसकी शिकायत करते थे और अपनी किस्मतों और ज़माने के उलट