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गुप्त धन
 

यह कहकर उन्होंने रोहिणी को अपनी मोटरकार में बिठा लिया। रोहिणी ने बड़े इत्मीनान और बड़े गर्व से अपनी सहेलियों की तरफ देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुशी से चमक रही थीं और चेहरा चाँदनी रात की तरह खिला हुआ था।

सेठ जी ने रोहिणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से कुछ अपनी पसन्द से बहुत-सी चीजें खरीदी, यहाँ तक कि रोहिणी बातें करते करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गयी। उसने इतनी चीजें देखीं और इतनी बातें सुनीं कि उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोहिणी के घर पहुंचे और मोटर कार से उतरकर रोहिणी को अब कुछ आराम मिला। दरवाजा बन्द था। उसकी माँ किसी ग्राहक के घर कपड़े देने गयी थी। रोहिणी ने अपने तोहफ़ों को उलटना-पलटना शुरू किया—खूबसूरत रबड़ के खिलौने, चीनी की गुड़ियाँ जरा दबाने से चूं-चूं करने लगतीं और रोहिणी यह प्यारा संगीत सुनकर फूली न समाती थी। रेशमी कपड़े और रंग-बिरंगी साड़ियों के कई बण्डल थे लेकिन मखमली बूटे की युलकारियों ने उसे खूब लुभाया था। उसे उन चीजों के पाने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा उन्हें अपनी सहेलियों को दिखाने की बेचैनी थी। सुन्दरी के जूते अच्छे सही लेकिन उनमें ऐसे फूल कहाँ हैं। ऐसी गुड़ियाँ उसने कभी देखी भी न होंगी। इन खयालों से उसके दिल में उमंग भर आयी और वह अपनी मोहिनी आवाज़ में एक गीत गाने लगी। सेठ जी दरवाजे पर खड़े इस पवित्र दृश्य का हार्दिक आनन्द उठा रहे थे। इतने में रोहिणी की मां रुक्मिणी कपड़ों की पोटली लिये हुए आती दिखायी दी। रोहिणी ने खुशी से पागल होकर एक छलाँग भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्मिणी का चेहरा पीला था, आँखों में हसरत और बेकसी छिपी हुई थी, गुप्त चिंता का सजीव चित्र मालूम होती थी, जिसके लिए ज़िन्दगी में कोई सहारा नहीं।

मगर रोहिणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चूमा तो ज़रा देर के लिए उसकी आँखों में उम्मीद और जिन्दगी की झलक दिखायी दी। मुरझाया हुआ फूल खिल गया। बोली—आज तू इतनी देर तक कहाँ रही, मैं तुझे ढूँढने पाठशाला गयी थी।

रोहिणी ने हुमककर कहा—मैं मोटर कार पर बैठकर बाजार गयी थी। वहाँ से बहुत अच्छी-अच्छी चीजें लायी हूँ। वह देखो कौन खड़ा है?