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कर्मों का फल
१७९
 

धंधे से फुरसत पाकर जब मैं घर पर आता और उसे प्यार से गोद में उठा लेतातो मेरे हृदय को जो आनन्द और आत्मिक शक्ति मिलती थी, उसे शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता। उसकी अदाएँ सिर्फ दिल को लुभानेवाली नहीं, ग़म को भुलानेवाली हैं। जिस वक्त वह हुमककर मेरी गोद में आती तो मुझे तीनों लोक की संपत्ति मिल जाती थी। उसकी शरारतें कितनी मनमोहक थीं। अब हुक्के में मजा नहीं रहा, कोई चिलम को गिरानेवाला नहीं! खाने में मज़ा नहीं आता, कोई थाली के पास बैठा हुआ उस पर हमला करनेवाला नहीं! मैं उसकी लाश को गोद में लिये बिलख-बिलखकर रो रहा था। यही जी चाहता था कि अपनी ज़िन्दगी का खातमा कर दूं। यकायक मैंने साईदयाल को आते देखा। मैंने फौरन आँसू पोंछ डाले और उस नन्ही-सी जान को जमीन पर लिटाकर बाहर निकल आया। उस धैर्य और संतोष के देवता ने मेरी तरफ समवेदना की आँखों से देखा और मेरे गले से लिपटकर रोने लगा। मैंने कभी उसे इस तरह चीखें मारकर रोते नहीं देखा। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गयीं, बेचैनी से बेसुध और बेहाल हो गया। यह वही आदमी है जिसका इकलौता बेटा मरा और माथे पर बल नहीं आया। यह कायापलट क्यों?

इस शोकपूर्ण घटना के कई दिन बाद जब कि दुखी दिल सम्हलने लगा था, एक रोज़ हम दोनों नदी की सैर को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीं सुनहरी, कहीं नीली-सी, कहीं काली, किसी थके हुए मुसाफिर की तरह धीरे-धीरे बह रही थी। हम दूर जाकर एक टीले पर बैठ गये लेकिन बातचीत करने को जी न चाहता था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने विचारों में डुबो दिया। नदी की लहरे विचारों की लहरों को पैदा कर देती हैं। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि प्यारी चन्द्र-मुखी लहरों की गोद में बैठी मुस्करा रही है। मैं चौंक पड़ा और अपने आँसुओं को छिपाने के लिए नदी में मुंह धोने लगा। साईदयाल ने कहा—भाई साहब, दिल को मज़बूत करो। इस तरह कुढ़ोगे तो ज़रूर बीमार हो जाओगे।

मैंने जवाब दिया—ईश्वर ने जितना संयम तुम्हें दिया है, उसमें से थोड़ा सा मुझे भी दे दो, मेरे दिल में इतनी ताकत कहाँ।

साईंदयाल मुस्कराकर मेरी तरफ ताकने लगा।

मैंने उसी सिलसिले में कहा—किताबों में तो दृढ़ता और संतोष की बहुत-सी कहानियाँ पढ़ी हैं मगर सच मानो कि तुम जैसा दृढ़, कठिनाइयों में सीधा खड़ा रहने-