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गुप्त धना
 

दूसरे रोज दीनानाथ उनको देखने के बहाने से लाला हरनामदास की सेवा में उपस्थित हुआ। लाला जी उसे देखते ही तकिये के सहारे उठ बैठे और पागलों की तरह बेचैन होकर पूछा—क्यों, कारबार सब तबाह हो गया कि अभी कुछ कसर बाकी है! तुम लोगों ने तो मुझे मुर्दा समझ लिया है। कभी बात तक न पूछी। कम से कम तुमसे मुझे ऐसी उम्मीद न थी। बहू ने मेरी तीमारदारी न की होती तो मर ही गया होता।

दीनानाथ—आपका कुशल-मंगल रोज बाबू साहब से पूछ लिया करता था। आपने मेरे साथ जो नेकियाँ की हैं, उन्हें मैं भूल नहीं सकता। मेरा एक-एक रोआँ आपका एहसानमन्द है। मगर इस बीच काम ही कुछ ऐसा था कि हाजिर होने की मोहलत न मिली।

हरनामदास—खैर, कारखाने का क्या हाल है? दीवाला होने में क्या कसर बाकी है?

दीनानाथ ने ताज्जुब के साथ कहा—यह आपसे किसने कह दिया कि दीवाला होनेवाला है? इस अरसे में कारोबार में जो तरक्की हुई है, वह आप खुद अपनी आँखों से देख लेंगे।

हरनामदास व्यंग्यपूर्वक बोले—शायद तुम्हारे बाबू साहब ने तुम्हारी मनचाही तरक्की कर दी! अच्छा अब स्वामिभक्ति छोड़ो और साफ बतलाओ। मैंने ताकीद कर दी थी कि कारखाने का इन्तजाम तुम्हारे हाथ में रहेगा। मगर शायद हरिदास ने सब कुछ अपने ही हाथ में रखा।

दीनानाथ—जी हाँ, मगर मुझे इसका जरा भी दुख नहीं। वहीं इस काम के लिए ठीक भी थे। जो कुछ उन्होंने कर दिखाया, वह मुझसे हरगिज न हो सकता।

हरनामदास—मुझे यह सुन सुनकर हैरत होती है। बतलाओ, क्या तरक्की हुई?

दीनानाथ—तफ़सील तो बहुत ज्यादा होगी, मगर थोड़े में यह समझ लीजिए कि पहले हम लोग जितना काम एक महीने में करते थे उतना अब रोज होता है। नयी मशीन आयी थी, उसकी आधी कीमत अदा हो चुकी है। वह अक्सर रात को भी चलती है। ठाकुर कम्पनी का पाँच हजार मन आटे का ठीका लिया था, वह पूरा होनेवाला है। जगतराम बनवारीलाल से कमसरियट का ठेका लिया है। उन्होंने हमको पाँच सौ बोरे माहवार का बयाना दिया है। इसी तरह और फुटकर