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गोदान : 159
 


नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता।

नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें, वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप खुद चलकर झूठ-सच की जांच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता।

पंचों ने रायसाहब का फैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों-का-त्यों पड़ा था, पर रुपये तो कब के गायब हो गए। होरी को मकान रेहन लिखा गया था, पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था? जैसे हिंदू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपये का है, पर उसकी असली कीमत कुछ भी नहीं। और इधर रायसाहब बिना रुपये लिए मानने के नहीं। यही होरी जाकर रो आया होगा। पटेश्वरी लाल सबसे ज्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक-दूसरे पर दोष रखता था। फिर खूब झगड़ा हुआ।

पटेश्वरी ने अपनी लंबी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा-मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, मगर तुम लोगों को रुपये की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपये। अब भी कुशल है। कहीं रायसाहब ने रपट कर दी, तो सब जने बंध जाओगे।

दातादीन ने ब्रह्म तेज दिखाकर कहा-मेरे पास बीस रुपये की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राह्मणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ खरच ही नहीं हुआ? रायसाहब की हिम्मत है कि मुझे जेहल ले जायं? ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूंगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा।

झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह रायसाहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायश्चित करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता, मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहां मजे से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपये से ज्यादा न था, पर एक हजार साल की ऊपर को आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाजिर, बेगार में सारा हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहां था। और तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहां जा सकते थे। दो-तीन दिन इसी चिंता में पड़े रहे कि कैसे इस विपत्ति से निकलें। आखिर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक 'बिजली' देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके संपादक की सेवा में भेज दिया जाय कि रायसाहब जिस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं, तो बचा को लेने के देने पड़ जायं। नोखेराम भी सहमत हो गए। दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्ट्री से भेज दिया।

संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरंत रायसाहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा