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18 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

रायसाहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे। उनकी नज़रें और डालियां और कर्मचारियों की दस्तूरियां जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौक़ीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशाने-बाज़। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे; मगर दूसरी शादी न की थी। हंस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे।
होरी ड्योढ़ी पर पहुंचा तो देखा जेठ के दशहरे के अवसर पर होनेवाले धनुष-यज्ञ की बड़ी ज़ोरों से तैयारियाँ हो रही हैं। कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दूकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज़ हो गयी थी; पर राय साहब ख़ुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पायी थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे। और दो-तीन दिन इलाक़े में बड़ी चहल-पहल रहती थी। राय साहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे, दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृन्दाबन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कविता रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थे, जो राम के परमभक्त थे और फ़ारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की ज़रूरत न थी।
होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा राय साहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले --अरे! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवानेवाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, जिस वक़्त जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक़्त तू एक गुलदस्ता लिये खड़ा रहेगा और जानकी जी की भेंट करेगा। ग़लती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आयें। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं।
वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुरसी पर बैठ गये और होरी को ज़मीन पर बैठने का इशारा करके बोले -- समझ गया, मैंने क्या कहा। कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही, लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हज़ार का प्रबन्ध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं वरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या, व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगे। मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर। सम्पत्ति और सहृदयता में वैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो, क्यों? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार।