की सभानेत्री चुन ली गई है। तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गई।
गोबर को यहां रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दांत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है, लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गई है। उसने पहले महीने में तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े रुपये बचा लिए। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोमचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गर्मियों में शर्बत और बरफ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था, इसलिए उसकी साख जम गई। जाड़े आए, तो उसने शर्बत की दुकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपये से कम नहीं है। उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प-शू पहनता है। एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निंदा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आए दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहां घर से दूर, मुंह छिपाए पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निंदास्पद बातें यहां नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुंह चुराए।
इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपये-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरंत गया करने की ओर अम्मां को गहने बनवाने की धुन सवार हो जाएगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपये नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। वह पड़ोस के इक्केवालों, गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपये उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है।
तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुद आकर द्वार पर खड़े हो गए। गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जाकर पूछा-क्या हुक्म है सरकार?
मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जाजी को रुपये दिए थे, पर अब तक वसूल न सका था। तकाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपये लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपये टिकते ही न थे। इधर आए, उधर गायब। यह तो न कह सका, मैं रुपये न दूंगा या मेरे पास रुपये नहीं हैं, शराब की निंदा करने लगा-आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है?
मिर्जाजी ने कोठरी के अंदर आकर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूं। मैं इसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपयों के लिए न डरो। मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा।
गोबर अविचलित रहा-मैं सच कहता हूं मालिक मेरे पास इस समय रुपये होते तो