बर्तन में खाता हूं, वह भी अब मेरा नहीं। बैंक से मैं निकाल दिया जाऊंगा। जिस खन्ना को देखकर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हंसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुनकर, लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहे? जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हंसे, मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करें, लोग जितनी गालियां देना चाहें, दें। खन्ना अपनी आंखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं है, बेगैरत नहीं है।
यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीटकर जोर-जोर से रोने लगे।
मेहता ने उन्हें छाती से लगाकर दुखित स्वर में कहा-खन्नाजी, जरा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार होकर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्घन रहकर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी, बल्कि तब कोई आपका रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शांत हो जाएगा।
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरास्ते पर आए। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुंच गए।
खन्ना ने उतरकर शांत स्वर में कहा-कार आप ले जायं। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है।
मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा-तुम चलकर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे। घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।
खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले-मुझसे जो अपराध, हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती। तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है, तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस-पांच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पड़े। किस्मत ने कैसा धोखा दिया।
मेहता ने कहा-मैं आपसे सच कहता हूं खन्नाजी, आज मेरी नजरों में आपकी जो इज्जत है, वह कभी न थी।
तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविन्दी भीतर से आकर बोली-क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महराज तो बड़ी बुरी खबर लाया है।
खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकने वाला, तूफानी आवेग उठा कि गोविन्दी के चरणों पर गिर पड़े और उन्हें आंसुओं से धो दें। भारी गले से बोले-हां प्रिये, हम तबाह हो गए।
उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सांत्वना के लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई सांत्वना के लिए-उस रोगी की भांति, जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा भरी आंखों से ताक रहा हो। वह गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेश अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिए उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उसके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार