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गोदान : 323
 


कितना प्राण रह गया है-कितना जख्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ? उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किए, कभी तू छांह में बैठा? उस पर यह अपमान। और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अंधा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।

दातादीन ने कहा-तो मैं जाता हूं। न हो, तुम इसी बखत नोखेराम के पास चले जाओ।

होरी दीनता से बोला-चला जाऊंगा महराज। मगर मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है।


छत्तीस


दो दिन तक गांव में खूब धूमधाम रही। बाजे बजे, गाना-बजाना हुआ और रूपा रो-धोकर बिदा हो गई, मगर होरी को किसी ने घर से निकलते न देखा। ऐसा छिपा बैठा था, जैसे मुंह में कालिख लगी हो। मालती के आ जाने से चहल-पहल और बढ़ गई। दूसरे गांव की स्त्रियां भी आ गईं।

गोबर ने अपने शील-स्नेह से सारे गांव को मुग्ध कर लिया है। ऐसा कोई घर न था, जहां वह अपने मीठे व्यवहार की याद न छोड़ आया हो। भोला तो उसके पैरों पर गिर पड़े। उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाए और एक रुपया बिदाई दी और उसका लखनऊ का पता भी पूछा। कभी लखनऊ आएगी तो उससे जरूर मिलेगी। अपने रुपये की उससे कोई चर्चा न की।

तीसरे दिन जब गोबर चलने लगा तो होरी ने धनिया के सामने आंखों में आंसू भरकर वह अपराध स्वीकार किया, जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा था, और रोकर बोला-बेटा, मैंने इस जमीन के मोह से पाप की गठरी सिर पर लादी। न जाने भगवान् मुझे इसका क्या दंड देंगे।

गोबर जरा भी गर्म न हुआ, किसी प्रकार का रोष उसके मुंह पर न था। श्रद्धाभाव से बोला-इसमें अपराध की कोई बात नहीं है दादा। हां, रामसेवक के रुपये अदा कर देना चाहिए। आखिर तुम क्या करते? मैं किसी लायक नहीं, तुम्हारा खेती में उपज नहीं करज कहीं मिल नहीं सकता, एक महीने के लिए भी घर में भोजन नहीं। ऐसी दसा में तुम और कर ही क्या सकते थे? जात न बचाते तो रहते कहां? जब आदमी का कोई बस नहीं चलता, तो अपने को तकदीर पर ही छोड़ देता है। न जाने यह धांधली कब तक चलती रहेगी? जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढोंग है। औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होता, उनकी जमा मारी होती, तो तुम भी भले आदमी होते। तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा, यह उसी का दंड है। तुम्हारी जगह मैं होता, या तो जेहल में होता या फांसी पा गया होता। मुझसे यह कभी बरदास न होता कि मैं कमा-कमाकर सबका घर भरूं और आप अपने बाल-बच्चों के साथ मुंह में जाली लगाए बैठा रहूं।

धनिया बहू को उसके साथ भेजने को राजी न हुई। झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहां रहने का था। तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाय।

दूसरे दिन प्रातःकाल गोबर सबसे विदा होकर लखनऊ चला। होरी उसे गांव के बाहर तक पहुंचाने आया। गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था। जब गोबर उसके चरणों