कै हो गई और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गई।
उस मजदूर ने कहा—कैसा जी है होरी भैया?
होरी के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला-कुछ नहीं, अच्छा हूं।
यह कहते-कहते उसे फिर कै हुई और हाथ-पांव ठंडे होने लगे। यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा है? आंखों के सामने जैसे अंधेरा छाया जाता है। उसकी आंखें बंद हो गईं और जीवन की सारी स्मृतियां सजीव हो-होकर हृदय-पट पर आने लगीं, लेकिन बे-क्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे, स्वप्न-चित्रों की भांति बेमेल, विकृत और असंबद्ध, वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियां खेलता था और मां की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुंदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिल्कुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गई और...
उसी मजदूर ने पुकारा-दोपहरी ढल गई होरी, चलो झौवा उठाओ।
होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थी, हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे। लू लग गई थी।
उसके घर आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुंची। सोभा और हीरा पीछे पीछे खटोले की डोली बनाकर ला रहे थे।
धनिया ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन् से हो गया। मुख कांतिहीन हो गया था। कांपती हुई आवाज से बोली-कैसा जी है तुम्हारा?
होरी ने अस्थिर आंखों से देखा और बोला-तुम आ गए गोबर? मैंने मंगल के लिए गाय ले ली है। वह खड़ी है, देखो।
धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पांव आते भी देखा था, आंधी की तरह आते भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गांव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं, यह धैर्य का समय है। उसकी शंका निर्मूल है, लू लग गई है, उसी से अचेत हो गए हैं।
उमड़ते हुए आंसुओं को रोककर बोली-मेरी ओर देखो, मैं हूं, क्या मुझे नहीं पहचानते?
होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गई थी, आग दहकने वाली थी। धुआं शांत हो गया था। धनिया को दीन आखों से देखा, दोनों कोनों से आंसू की दो बूंदें ढलक पड़ीं। क्षीण स्वर में बोला-मेरा कहा-सुना माफ करना धनिया। अब जाता हूं। गाय की लालसा मन में ही रह गई। अब तो यहां के रुपये करिया-करम में जायंगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलाएगी? सब दुर्दसा तो हो गई। अब मरने दे।
और उसकी आंखें फिर बंद हो गईं। उसी वक्त हीरा और सोभा डोली लेकर पहुंच गए। होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गांव की ओर चले।
गांव में यह खबर हवा की तरह फैल गई। सारा गांव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था, पर जबान बंद हो गई थी। हां, उसकी आंखों से बहते हुए आंसू बतला रहे थे, कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दु:ख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाए हुए