गोरख-बानी] ८३ रहता हमारे गुरू २ बोलिये, हम रहता' का चेला । मन मानै तौ संगि फिरै५, नहितर फिरै अकेला ॥२७१।। दरसण माई दरसण बाप । दरसण माही आपै आप। या दरसण का कोई जाणे भेव । सो आपै करता आपै देव ॥२७२॥ जिनि जाण्या तिनि परा पहेचाण्या, वा अटल स्यू लो लाई । गोरप कहै अमे कानां सुणता, सो आंष्यां१ देष्या रै भाई । केवल (घ) में अधिक सवदियां- बैठां बारै चलत अठार, सुता तूटै तीस । कईथन करतां चौसटि तूटै, क्यों भजिवी जगदीस ॥२७४|| नासिका अग्रे भ्रू१२ मंडले, अनिस रहिवा थीरी माता गरभि जनम न आयबा, बहुरि न पीयबा षीरं ॥२७॥ जो रहनी रहता है, वह हमारा गुरु है, हम उसके चेले हैं। मन मानता है तो गुरु के साथ घूमते-फिरते हैं नहीं तो अकेले रमवे हैं ॥ २७॥ दरसन, कानों की मुद्रा । भेव, भेद ।। २७२ ।। चारह, अठारह, तीस और चौसठ साँसें हैं। इन कर्मों से इतनी साँसे टूटती हैं, जिन्हें असल में अजपाजाप के द्वारा भगवन्नाम स्मरण में लगाना चाहिये था । अतएव इन कर्मों से भगवद्भजन कैसे संभव हो सकता है ॥२७॥ नासान में अथवा भ्रू-मंडल (या भ्रू-मध्य ) में रात दिन स्थिर रहो ( अर्थात् दृष्टि को स्थिर रक्खो), इससे आवागमन मिट जायगा, माता के गर्भ में नहीं आना पड़ेगा, उस दूध नहीं पीना पड़ेगा ॥ २७ ॥ १. (ख) रहेता । २. (ख) गरु । ३. (ख) बोलीये । ४. (ख) रहिता । ५. (ख) फीरे । ६. (ख) माइ ७. (ख) जानि । ८. (ख) तीनि । ९. (ख) स्यु। १०.(ख) काना । ११. (ख) आष्या। १२. (घ) भू ।
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