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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१३७

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१०६ [गोरख-बानी - काम क्रोध बाली' चूंनां कीधा, कंद्रप कीया कपूरं । मन पवन', दो काथ सुपारी, उनमनीं" तिलक सींदूरं । ३ । ग्यांन गुरू दोऊ तूबा अम्हारे, मनसा चेतनि डांडी। उनमनी तांती वाजन' लागी, यहि बिधि तृष्नां ११ षांडो । ४ । एण१२ सतगुरि अम्हे परणांव्या', अबला बाल कुवारी१४ । मछिंद्र प्रसाद १५ श्रीगोरष बोल्या, माया नां मौ टारी ।। ॥१६॥ तत बेली लो तत बली लो, अवधू गोरषनाथ ६ जाणी१७ । डाल न मूल पहुप नहीं छाया, विरधि ८ करै विन पाणी१९ ॥ टेक इसी लिए उसे ब्रह्मा और सावित्री का निवास मानते हैं । यही सास-ससुर कहे जाते हैं, क्योंकि ये स्थूल माया को पैदा करने वाले हैं । यह जोगी मन माया का भोग इस प्रकार करता है कि बलवती न होने पावे । काम क्रोध को तो उसने जला कर चूना या भस्म कर दिया और कामदेव का कपूर ( व्यंजना से स्वयं नष्ट हो जाने वाला ) । मन और पवन ये दोनों करया और सुपारी बन गये और उन्मनावस्था (तुरीय ) का उसके लिए सिंदूर का तिलक बना दिया । (अर्थात् माया के द्वार मायिक वस्तुओं का भक्षण करा- कर अपने माया-पूर्ण अस्तित्व को ब्रह्मानुभूति कर दिया ।) ज्ञान और ये हमारे दो तूम्बे है और चेतन इच्छा ( मनसा ) तम्बूरे की दौडी है। इस तम्वूरे पर कसी हुई उन्मनावस्था की तोते (तार ) यज उठी। इस प्रकार हमने तृष्णा को खंडित (नष्ट ) किया । इस पकार पान- कुमारी माया से सद्गुरु ने हमारा परिणय करा दिया है अर्थात् हम माया ६. स्वामी हो गये । और माया का भय दूर हो गया है ॥ १६ ॥ तत्त्व रूपी येन को है श्रवधून ! गोरखनाथ लानते हैं । इस बेल की न १. (घ) वालि नैं। २. (घ) कंद्रप। ३. (घ) पवनां । ४. (घ) दो पान। ५. (घ) उनमनि । ६. (घ) संदूरं । ७. (घ) गरू ना तूं वा म्हारे । ८. (५) उनमनि । ९. (घ) बाजए । १०. (घ) अदि । ११. (घ) त्रियां। १२. (प) अम्हारे मतगुर । १३. (घ) परणाया। १४. (घ) कंवारी। १५. (प) प्रगादे । १५. (प) गोरपनायि । १७. (घ) जांणी । १८. (घ) वृध ) १६. (प) रिल पांगी।