१२४ [गोरख-बानी ऐसा जाप जपौ' मन लाई', सोहं सोहं अजपा गाई ॥ टेक ।। आसण दिढ करि धरौ धियानं२, अह निस सुमिरौ3 ब्रह्म गियानं२ । जाग्रत न्यंद्रा सुलप अहार, काम क्रोध अहंकार निवारं ॥१॥ नासा अग्र निजु ज्यौ वाई', इड़ा प्यंगुला मधि समाइ ।२। छसै संहस इकीसौं जाप, अनहद उपजै आपहि आप१०॥ बं: नालि मैं ऊगै सूर, रोम रोम धुनि बाजै तूर ।३। उलट कमल११ सहस्रदल १३ बास, भ्रमर गुफा महि१३ जोति प्रकास । सुणि मथुरा सिव गोरष कहै, परम तत ते साधू लहे।५ ॥४॥३०॥ (कर्ता ने) चारों युगों के लिए अलग अलग विशेषताएं बनाई। एक, दोइ, तीन, पहिला, दूसरा, तीसरा के लिए प्रयुक्त हुए हैं। मन बगा कर ऐसा जाप जपो कि 'सोऽहं' 'सोऽहं का वाणी के उपयोग के विना अजपा गान (अजपा-जाप ) हो जाय । हद आसन पर बैठ कर ध्यान करो और रात दिन ब्रह्म ज्ञान का स्मरण करो। निद्रा में जागरण करो। (जगत की भोर सोकर अध्यात्म में जागो।) भोजन थोड़ा करो। काम, क्रोध, और अहंकार का निवारण करो। इड़ा और पिंगला में समाई हुई नासाग्र तक जिसका विस्तार है (प्राण वायु का निवास नासा रंधों से बाहर बारह अंगुल तक माना जाता है इसी से यायु को द्वादशांगुल भी कहते हैं ) ऐसी वायु के द्वारा जब २१६०० जाप होने लगते हैं (अर्थात् श्वास क्रिया स्दयं जप-क्रिया ही हो जाती है, तब अनाहत नाद १. (घ) लायगाय । २. (घ) धियान' 'गियांन । ३. (घ) षोजौ ४. (घ) में 'जाग्रत · निवारं' नहीं । ५ (घ) नाभि कंवल मन सुरति लगाइ । ६. (घ) यला पिंगुला । ७. (घ) समाय । ८. (घ) यकी। ९. (घ) आपै । १०. (घ) में यह पंक्ति अधिक है-षट चक्र में हसा सार अहनिस हंसा जै जै कार । (घ) में आगे की दो पंक्तियों का स्थान परस्पर बदला हुआ ! ११. घ) ऊगा । १२. (घ) कंवल । २३. (घ) सहसदस । १४. (घ) भवर गुफा । १५. (घ) में अन्तिम चरण यों-मछिंद्र प्रताप जती गोरष रहै । परम तत्त कोई विरला लहै ।।
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