" गोरख-बानो ] भग राकसिलो, भग राकसि'लो, बिणं दंता जग पाया लो ग्यांनी हुता सु ग्यांन मुष रहिया, जीव लोक आपाप गंवाया लो।।टेका दिन दिन बाधिनी सीया लागी, राति सरीरै सोधे। विषै लुबधी तत न बूम, परि लै १ थाधनी पोषै ॥१॥ रंध्र है और कुंडलिनी (गागर ) जिसके द्वारा ब्रह्मानन्द रस का अनुभव होता है वह मूलाधार में जितने विभेद हैं वे सब माया के बनाये हैं और उन विभेद वस्तुओं को बनाकर माया फिर नष्ट कर देती है जैसे रोटी पकाने वाली रोटी को खा जाती है। किंतु अब अवस्था बदल गई है। पोने वाली (माया ) को रोटी (जीव, जिसका नाम से विभिन्न रूप माया कृत है) खा रही है । ब्रह्मानु- भूति होने पर माया नष्ट हो जाती है। सामान्य अवस्था में अंगीठी (जीवात्मा प्रयताप से) जलती है और कामिनी (माया) तापती है किंतु अब (ब्रह्म साक्षात्कार के कारण) कामिनी (माया) जल रही है और अंगीठी ताप रही है, ( जीवात्मा को ब्रह्मसुख पास हो रहा है।) जलती हुई माया ब्रह्माग्नि में थर थर कॉप रही है, क्योंकि उसे पूर्ण- तया नष्ट होने का भय है। बैसंदर-वैश्वानर । एक हठ करने वाली रद निश्चम (आत्मा) हरु करती हुई अायो तो ऐसी अवस्था श्रा जाती है कि बहू सास को जन्म देती है। मायिक उनम्न बहू है। वह अपने पति जोवारमा को मोहित किये रहती है। जीवारमा ब्रह्मसत्ता का पुत्र है इसलिए ब्रह्मसत्ता माया अथवा मायिक उनमन को सास हुई। द लगन और साधना से यह मायिक उलझन (संसर्ग) भी ब्रह्मानुभूति (ब्रह्मसत्ता ) को जन्म दे देता है। यही बहू का सास को बनना है। जैसे पानी कुएं से निकाल कर नगर में पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मत्व (या सरंध्र) से निकलकर योगशक्ति कुंडलिनी मूलाधार चक्र में स्थित है। योग अपनी साधना के द्वारा उसे उलटकर फिर मूल स्थान पर पहुँचा देता है। यही नगर के पानी को कुंए में पहुँचाना है । गोरख ऐसी उलटी चर्चा भणंत गोरषनाथ द्वै कर जोड़ी। भिडै भागें चावड़ तोड़ी। १. (घ) राकस । २. (घ) बिण दांतां । ३. (घ) जुग । ४. (प) ते ५. (घ) मुषि । ६. (घ) रहीया । ७. (घ) जीव लै आपगमाया। ८. (घ) बाघयो । ९. (घ) सेनीयां । १०. (घ) राति सरीरें । ११: (प) ले। गाता
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