१४६ [ गोरख बानी हलका सरवा रं सरवा त्रिभुवन ते गरवा । पाणी ते पतला पहुप ते हलवा ॥टेक काया 3५ मन जान न देह । राति दिवस अभि अंतरि लेह । मन मुद्रा के रूप न रंष । जगत रूप मन ही मन देषि ।। उलटैगा पवना तबकाया कौं गहेगा । काच गहे ११ कंचन है रहेगा यहु तन साच साच का घरवा । रुध्र पलट अमीरस भरवा२।२। अतीत पुरस' 3 ग्यांन पद परसै । अविचल होइ सरीरं दरसै१४ । जुरा मृतु काल का छिण ६ । निसपति जोगी जोगी का लक्षिण ७३॥ सर्व रूप प्रात्मा त्रिभुवन में सबसे भारी अथवा श्रेष्ठ है । वह पानी से भी पतला है और फूल (संभवतः सुगंधि अथवा पुष्प को प्रफुल्लता) से भी है मन को काया से बाहर नहीं जाने देना चाहिए । ( उसकी यहिमुख वृत्ति रोकनी चाहिये।) रात दिन उसे अंतमुख पनाये रखना चाहिये ! ( शारीरिक मुद्रा किसी काम की नहीं, मन की मुद्रा करनी चाहिए ) शरीर के छिद्रों को मूदने से योग सिद्ध नहीं होता मन को मूदन से योग सिद्ध होता है (क्योंकि योग चित्त-वृत्ति के निरोध को कहते हैं । ) जय पवन उबटा जावंगा अर्थात् पाताल जाने के बदले प्राणायाम के द्वारा ब्रह्मांड में प्रवेश करेगा वय काया को ग्रहण करेगा (अर्थात् शरीर वश में होगा । ऐसा यती व्यकि काच को भी हाथ से हुएगा तो वह कंचन होकर रहेगा । यह तन सचमुच सत्य का घर है जिसमें का रुधिर बदल गया है और उसके स्थान पर अमृत भर गया है। प्रतीत पुरप परब्रह्म जो सर्वोच्च ज्ञान-पद को छूता है ( अर्थात् सर्वोच्च ज्ञान द्वारा जाना ना सकता है) वह भी शरीर के अविचळ (अटल ) होने पर दिखाई देने लगता है। (इस प्रकार नम योगी) बरा, मत्यु घोर कान का भक्षण कर लेता है तय निमत्ति योगी का लक्षण समाना चाहिए। १. (घ) त्रिभुवन । २. (घ) पाणी थे । ३. (घ) पातना । ४. (घ) फूल ये ५. (५) । ६. (प) जांग ७. (घ) चीस । ८. (ध) पवन । ६. (घ) जव । १०. (घ) । ११. (घ) पलटि । १२. (घ) रुन भया फिर पीरं मरिया । १३. (प) पुरिस । १४. (घ) होय सरीरं द्रसे। १५. (घ) जुरामृत । १७. (घ) नपिए । १७. (क) का लक्षिन ।
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