पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/५८

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34 गोरख-बानी] ऊभा षडौं बैठा पंडौं पंडौं जागत सूग। तिहू लोक तैं रहूँ निरंतरि तौ" गोरख अवधूता ॥१०॥ न्यंद्रा कहै मैं अलिया बलिया, ब्रह्मा विष्न महादेव छलिया। न्यद्रा कहै हूंपरी बिगूती, जागै गोरष हूँ पड़ि सूती ॥१०॥ जोगी सो जे मन जोगवे, बिन बिलाइत राज भोगवै । कनक कामनी' त्यागै दोइ, सो जोगेस्वर २ निरभै होइ ॥१०२॥ (काल को सिद्ध योगी का बढ़ उत्तर है-) मैं खवा, बैठा, सोता चाहे जिस अवस्था में होऊँ मेरा नाम अवधूत गोरख तब है, जब मैं उसी अवस्था में तुम्हें (काल को खंडित कर तीनों लोकों से बाहर हो जाऊँ । यदि 'पंडों के स्थान पर 'सुमरू' श्रादि पाठ माने जाएँ तो अर्थ होगा कि मैं सुमिरन के प्रभाव से तीनों लोकों से अलग होकर तुम्हारे (काल के) प्रभाव से बाहर हो जाऊँगा ॥१०॥ निद्रा कहती है कि मैं भाल-जाल वाली (अलिया, प्रपंच कारिणी) हूँ और बलवती हूँ । ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तक को मैंने इला है । किन्तु गोरखनाथ ने मेरा खुब (बहुत ) बुरा हाल कर दिया। वह जागता है और मैं पदो सो रही हूँ। बिगूती-विकृत, विकुत, बिगूता (स्त्री)।॥ १० ॥ जोगी वह, जो मन की रक्षा करे। और परम शून्य अर्थात् ब्रह्मरंध्र में देश के बिना ब्रह्मानुभूतिमय बड़े राज्य का उपभोग करे । जो योगेश्वर कनक और कामिनी का त्याग कर देता है, वह निर्भय हो जाता है ॥३०२॥ बिलाइत-विदेश । प्राचीन काल में जब लोगों को बाहर का ज्ञान कम , १, (ख) सिमरूं; (ग) सुमिरूं; (घ) सुमरूं। २. (ख), (ग), (घ) तीन । ३. (ख) स्यौ; (ग) थे । ४. (क), (ग) निरंतर; (ख) निराला (मीराला) ५. (ख) तो। ६. (घ) निंद्रा । ७. (ग) (घ) अवला । 'अलिया बलिया' के स्थान पर अलिया छलिया भी संभव है। राजस्थान के लिपिकारों की 'छ' और 'बर में बहुत कम अंतर रहता है । 2. (ग) मैं फरि, (घ) फिरि । ६. (ख), (ग), (घ) जो । १०. (क) परम सुनि विन विलाइत; (ख) बीणि विलाइति (ग) विण विलाति वड, (घ) बिन बिलात बड । ११. (ख), (घ) कांमणी। १२. (ख) जोगेसर; (ग) जोगेस्तुर ।