गोरख-यानी] ३९ १२ १३ १४ २४ उदै न अस्त राति नै दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन । सोई निरंजन डाल न मूल, सर्व व्यापीक सुषम न अस्थूल ॥१११॥ ब्रह्मांड फूटिवा नगर सब लुटिवा, कोई न जांणबा१० भेवं। पदंत गोरपनाथ प्यंड दर जेब घेरिबा, तब पकड़िबा पंच देवं ।। ११२ ।। अहंकार तुटिबा निराकार फूटिबा, सोपीला गंग जमन का पांनीं । चंद सूरज दोऊ सनमुषि राषीला, कहो हो अवधू तहां की सहिनाणी ॥ न वहाँ जरा (बुढ़ापा), न मृत्यु है और न रोग; त वहाँ वाणी है न ॐकार । गोरख कहते हैं कि वहाँ तो केवल एकाकार (कैवल्य ) भवस्था है, (किसी प्रकार का भेदभाव नहीं।) ॥ १० ॥ (यहाँ ) न सदय है न अस्त, न रात न दिन, सारी चराचरमयी सृष्टि में कोई भिन्नता का भाव नहीं अथवा (पदच्छेद-भेद से सर्वस चराचर) सर्वेश और (उनकी) चर और अचर सृष्टि में कोई भेद भाव नहीं है। वही शुद्ध निरंजन ब्रह्म रह जाता है, भूत और शाखा, (अधिष्ठान और नामरूपोपाधि का ) भेद नहीं रह जाता । वही सर्वव्यापी रह जाता है जो न सूक्ष्म है न स्थूल ॥ १५ ॥ (ब्रह्मरंध्र में कुंडलिनी प्रवेश से ) ब्रह्मांड फोड़ना चाहिए और शून्य रूप नगर को लूटना चाहिए, जिसका भेद कोई नहीं जानेगा । गोरपनाथ कहते हैं कि जय शरीर रूपी घर घेर लिया जाता है तभी पंच देव (पंचेंद्रिय अथवा उनका स्वामी मन ) पकड़ा जा सकता है ॥ ११२ ॥ अहंकार तोड़ना चाहिए, निराकार धारमा को. प्रस्फुटित करना चाहिए । १. (ख) असत। २. (ग), (घ) नहीं। ३. (ख) (ग), (घ) सरव । ४.(क) भ्यंन्य; (ख), (घ) भिनि; (ग) भ्यंनि । ५. (ख) सो। ६. (घ) सकल । ७. (क) काया न; (ख) काया सुषम; (ग), (घ) सुषमना । ८. (ख) सथूल । ६. (क) ब्रह्मांड सब; (घ) ब्रह्माड । १०. (ग) जाणवा । ११. (क) पंड दर; (ग), (घ) पर दल; (ख) जब प्यंड दरि । १२. (ख) मेटिवा; (ग) घेरिव; (घ) घेरिका । १३. (क), (ग) तहाँ; (घ) में तहाँ' 'तब कुछ नहीं है। १४. (घ) पड़िबा । १५. (ख) टिवा । १६. (ग), (घ) लूटिवा । १७.(ख) सोषिवा । २८. (ग) जमुन । १९. (ग) सूरज । २०. (घ) समिकरि; (क), (ग) सनमुष । २१. (ख), (ग), (घ) रषिवा । २२. (घ) कहौ हो; (ग) कहै हो। २३. (घ) कहाँ । २४. (क) नीसाणी; (ग), (घ) सहनांणी । . 9
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