पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/६४

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६ १२ तांबा द गोरख-बानी] बास बासंत तहां प्रगट्या षेलं । द्वादस अंगुल गगन घरि मेलं । बदंत गोरख पूता होइबा चिराई । न पडत काया न जंम घरि जाई११६ अंन का मास' अनिल' ° का हाड तत ११ का बन्द भषिया वाई' बदंत गोरषनाथ पूता होइबा चिराईन पडै ४घट न जंमधरि जाई११७ ॐ१५ लोहा पीर तकबीर। रूपा महंमद सोना षुदाई१७ | दुहूँ१८ बिचि दुनियां१९ गोता पाई२० । हम तो निरालंभ बैठे देखत रहैं ऐसा एक सुपन बाबा रतनहाजी कहै११८ जहाँ (जो) ब्रह्म की सुबास से सुवासित रहता है अर्थात् ब्रह्म की व्यापकता जिसे अनुभव हो जाती है, वहाँ (उसके लिए ) ज्योति दर्शन का खेल प्रकट हो जाता । द्वादश अंगुल (अर्थात् प्राण वायु, योगियों का यह कथन है कि प्राण वायु का निवास नासिका के बाहर भी बारह अंगुल तक है। इसी से द्वादश अंगुल से प्राण-वायु का अर्थ लिया जाता है ) को शून्य में प्रविष्ठ करने से चिरायु प्राप्त होती है, शरीरपात नहीं होता और यम के प्रभाव में व्यक्ति नहीं जाता अर्थात् मरण नहीं होता ॥११६॥ अब से बने मांस को वायु से बनी हड्डी पर-तत्व (ज्ञान और अमृतपान ) का बंध देकर वायु को भक्षण करना चाहिए, गोरखनाथ कहते हैं कि हे पुन ! (शिष्य !) इससे शरीर-पात नहीं होगा, यम का प्रभाव नहीं रहेगा ॥१७॥ गुरु लोहे के समान है, उसकी बताई हुई योग-युक्ति (तदबीर) तावे के समान, 'मुहम्मद' चाँदी के समान और 'खुदा' सोने के समान । लोहे Thro १. (ख) वसंता; (ग), (घ) वसंत । २. (ख) दुादस प्रागुल । ३. (ख) गगनि । ४. (ख) मेलि; (ग) (षेल) मेला; (घ) (पेल) मेल । ५. (ख), (ग), (घ) गोरखनाथ । ६. (घ) होयबा । ७. (ख), (ग), (घ) पड़े। ८. (ख) आन । ६. (क) रूड़। १०. (क), (ग), (घ) अनील । ११. (ग), (घ) तन । १२. 'बाई' के पहले (ख), (ग), (घ) में 'अन फेरिवा' अधिक है । १३. (ग) चिरायु । १४. (ख) न प्यंडे, (क) प. (ग), (घ) पुरि । १५. (ख), (ग), (घ) में 'ॐ नहीं है। १६. (ख) पोता तवा । १७. (ग) धुदा;(घ) बुदाय । १८. (ख), (ग) दहूँ; (घ) दहूँ। १६. (ख) दुनिया; (ग), (घ) दुनीयां । २०. (ख), (ग), (घ) में अंतिम दो चरण इस प्रकार हैं-