पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/७३

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पू० [गोरख-बानी अवधू ईश्वर' हमारै चेला भणीजै मछींद्र बोलिये नाती। निगुरी पिरथी परलै जाती ताथै हम उलटी थापनां थापी१४४ भरि भरि पाइ" ढरि ढरि जाइ । जोग नहीं पूता बड़ी बलाइ । संजम होइ बाइ संग्रहौ । इस विधि अकल पुरिस कौं गहौ ॥१४५॥ प्रकार गुरु-वचन की अवहेलना करता है उसके शरीर का रस योगाग्नि के प्रभाव के कारण बँधता नहीं है और कच्चा रह जाने के कारण ढलक (स्खलित हो) जाता है ॥ १४३ ॥ हे प्रवधूत, (गोरख कहते हैं कि) शिव हमारे चेला हैं, मत्स्येंद्रनाथ नाती-चेला अर्थात् चेले का चेना । (हमें स्वयं गुरु धारण करने को भाव- श्यकता नहीं थी । क्योंकि हम साक्षात् परमात्मा हैं। किंतु इस डर से कि हमारा अनुकरण कर अज्ञानी लोग बिना गुरु के ही योगी होने का दम न मरने लगें हमें मत्स्येन्द्रनाथ को गुरु बनाना पड़ा) जो वस्तुतः उलटी स्थापना अथवा क्रम है। यदि हम ऐसा न करते तो गुरुहीन पृथ्वी प्रलय में चली जाती मर्यात् नष्ट हो जाती ॥१४॥ पेट भर भर कर खाने से बिंदु क्षरित होता है। उस दशा में योग संभव नहीं होता बल्कि योग घला हो जाता है । संयम धारण कर वायु का संग्रह करना चाहिए उसे नष्ट होने से बचाना चाहिए और इस प्रकार कला रहित भर्यात् परिवर्तन विहीन परमारमा (पुरुष) को ग्रहण (प्राप्ठ ) करना चाहिए ॥ १४५॥ १. (ग) ईश्वर; (ख) स्वौ (१) २. (ग) पुता वोलीय; (घ) पुत्र बोलीए । ३. (क) पृथ्वी प्रले; (ग), (घ) पृथमी मरि मरि; (ख) परयमी मरि मरि । ४. (ख) ताते । ५. (ख) 'हम' नहीं है । ६. (क) उलटि सृष्टि करि । ७. (ख) साये । ८. (ख), (ग), (घ) ढलि ढलि । ९. (ख) यौ; (ग), (घ) रे पूता । १०.(ग) (प) में अंतिम दो चरा इस प्रकार है-ऊपरि भरे नीचे झरे ताको गोरण काई करे। (ख) में इसके स्थान पर पागे वाली सवदी के पहले दो चरग्य है । इस प्रकार दो सबदियों के पहले दो दो चरणों के मेल से यह गपदी बनी है। 1