५५ , गोरख-वानी] थांन मान गुर ग्यांन । बेधां वोध सिधां परग्रांम । चेतनि बाला भ्रम न बहै। नाथ की कृपा अषंडित रहै ॥१६०॥ अधिक' तत्त ते गुरू बेलिये हीण तत२ ते चेला। मन मां तौ संगि रमौ नहीं तो रमौ3 अकेला ॥१६१।। चलत" पंथा तूटंत कथा उडत पहा विचलंत देहा। छूटत ताली हरि सूनेहा ॥१६२॥ पंथि चले चलि पवनां तूटै नाद बिंद अरु बाई । घट २ ही भीतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भाई१३ ॥१६३॥ जो स्थान (स्थिति, स्थैर्य, अटलता ) से मान (प्राप्त करता है ), गुरु के ज्ञान को (ग्रहण करता है), कुण्डली बेध किये हुओं से बोध (प्राप्त करता है) और सिद्धों से परग्रामिता (पृथ्वी में उस प्रकार रहना जैसे कोई दूसरे के गांव में रहता है अर्थात् निर्लिप्तता), वह चेतन स्वरूप गुरु का बालक भ्रम में नहीं बहता । (क्योंकि उस पर) गुरु की अखंडित कृपा रहती है ॥ १६० ॥ अधिक तत्व वाला गुरु है। हीन तत्व वाला चेला । अर्थात हीन तत्त्ववाने को अधिक तत्व वाले से हमेशा ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। ज्ञान ग्रहण कर लेने पर शिष्य इच्छानुसार गुरु के साथ-साथ अलग भी रह सकता ॥१६॥ मार्ग में चलते रहने से कंधा टूटती है (कपड़ा फटता है अथवा काया भोजती है क्योंकि शरीर विचलित होता है) तथा भगवद्भक्ति में भंग पड़ता है और समाधि टूट जाती है ॥ १६२ ।। रास्ता चलते रहने से पवन टूटता है । (परिणाम में) नाद, बिंदु मौर वायु १. (क) में पहला चरण यों है-अधिक तत गुर । २. (ग) चित्र; (क) में ते नहीं है । ३. (क) रहै. फिरै । ४. (ग) एकेला । ५. (ग) चालंत;(घ) चालत । (ग) तुटंत । ७. (ग) उपंडित; (घ) ऊडत । ८.(क) में इस सवदी का अंतिम और अगली का प्रथम चरण और (ग) में केवल अंतिम छूट गया है। ६.(ग) पंक। १०. (ग) तू? (१) ११. (ग) में 'विंद' नहीं। १२. (ग), (घ) में इस चरण का पाठ इस प्रकार है-'अठसठि तीरथ घट (पटना) भीतरि । १३. (ग), (घ) में इस चरण का पाठ यों है-'तुम काहे भूमरि (भरमौ रे-घ) भाई'। sho
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