पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०८ इन्सान पैदा हुआ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - " क्या तुम वास्तव में जा रहो हो ? " मैंने पूछा । " अपना ख्याल रखो, माँ । " “ पवित्र कुमारी मेरी सहायता करेगी ? .उसे उठा कर मुझे दे दो । " " उसे मैं ले चलूंगा । " इस बात पर हम दोनों में थोड़ी देर तक वहस हुई और फिर वह मान गई । हम लोग तब साथ साथ, कन्धे से कन्धा भिड़ा कर चल खड़े हुए । "मुझे उम्मीद है मैं लडखड़ाऊँगी नहीं, " उसने अपराधी के समान हॅसते हुए मेरे कन्धे पर हाथ रख कर कहा । रूस का नया निवासी , ऐसा मानव , जिसका भाग्य अशात था , गहरी साँस लेता हुश्रा मेरे हाथों पर लेटा हुया था । समुद्र , जो सफेद गोटे की कतरनो से ढका हुया था , किनारे पर टकरा रहा था झाड़ियाँ आपस में कानाफूसी कर रही थीं । सूर्य मध्याह्न की रेखा को पार करता हुआ चमक् रहा था । हम धीरे धीरे चलते रहे । कभी कभी माँ रुक जाती , एक गहरी साँस लेती और अपना सिर उठा कर चारी श्रोर , समुद्र , जंगल , पहाड़ और फिर अपने बेटे के चेहरे की ओर देखती । उसकी प्रॉखें , जो वेदना के आँसुओं से पूरी तरह धुल चुकी थीं , पुन श्राश्चर्य जनक रूप से निर्मल हो गई थी । उनमें पुन . असीम स्नेह का प्रकाश चमकने लगा था । एक वार वह रुकी और वोली . " भगवान् । मेरे प्यारे अच्छे भगवान् । यह कितना अच्छा है कितना अच्छा । श्रोह, अगर मैं इसी तरह चलती रहती , सदैव दुनियों के प्रति छोर तक , और यह , मेरा छोटा सा बच्चा बढ़ा होता जाता, श्राजादी से बढ़ता रहता , अपनी माँ की दाती के पास रह कर मेरा प्यारा छोटा बच्चा समुद्र से निरन्तर मर्मर की ध्वनि उठ रही थी