पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/९५

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इन्सान पैदा हुआ झाड़ियों को एक तरफ हटा कर मैंने देखा कि वह पीले रूमाल वाली औरत एक अखरोट के तने से पीठ लगाए बैठी है । उसका सिर एक तरफ कन्धे पर लटक रहा था , मुख विकृत हो उठा था , आँखें पागल की आँखों की तरह बाहर को निकली पड रही थीं । वह अपना पेट दोनों हाथों से पड़े इतने अस्वाभाविक दम से साँसे ले रही थी कि दर्द से उसका पेट उछलता सा लग रहा था । वह वीरे से कराही और अपने पीले भेड़िये के से दाँतों को वाहर निकाला । ____ " क्या बात है ? क्या किसी ने तुम्हें मारा है ? ” मैंने उसके ऊपर झुकते हुए पूछा । उसने धूल में एक पैर से दूसरे पैर को रगड़ा, जैसे मक्खी अपने परों को साफ कर रही हो , और अपने भारी सिर को घुमाती हुई बोली " चले जायो ! क्या तुम्हें विल्कुल शर्म नहीं ? चले जायो । अब मुझे मालूम पड़ा कि क्या बात थी - मैंने पहले भी एक वार ऐसा देखा था । मैचपचाप सडक पर वापस चला पाया परन्त उस शौरत ने एक तीखी और लम्बो चीख मारी । उसकी बारह निकली हुई धोखें फटती सी प्रतीत हुई और उसके लाल सूजे हुए गालों पर आँसू बहने लगे । इसी चीख ने मुझे पुन उसके पास जाने के लिए मजबूर कर दिया । मैने अपना मोला, पतीली और चाय का डिव्वा श्रादि सारा सामान जमीन पर फर दिया और उस औरत को पीठ के वल चित लिटाकर उसकी टार्गे घुटनो पर से मोड़ने ही वाला था कि उसने मुझे धकेल कर हटा दिया । मेरे मुंह और छाती पर घूसे मारे और पलट कर चारों हाथ पैरों पर रेंगती गई , झाटियों में और गहरी घुस गई और एक रीछनी की तरह घुर्राने लगी । " शैतान ! . जानवर " उसके हाथ शिथिल पड पड़ गए भार वह जमीन पर मुंह के बल गिर पड़ी । फिर चीसी और अपने पैरों को मरोडने लगी ।