तीसरा अध्याय १७ उसका शांत होना संभव नहीं दीख रहा है। इस नवोनता के भीतर भी प्राचीनता का प्रभाव है, यह विना कहे तो रहा नहीं जा सकता, और जब कभी भारत स्वाधीन होगा, यही विशेषता उसे संसार के राष्ट्रों में खास स्थान देगी। ग्रेट ब्रिटेन भारत के इस नव्य उत्थान को सदैव ही विद्वेष कह- कर पुकारता रहा है। विद्वेष मानवीय हृदय की अति निकृष्ट भावना है, परंतु जो कुछ देश में आज तक हुआ है, वह ग्रेट ब्रिटेन के लिये चाहे जितना हानिकर हो, पर वह निकृष्ट भावना तो कहा नहीं सकता । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जो कुछ हो रहा है, उसमें विद्वेष की भावना है ही नहीं। पर घृणा और विद्वेष जहाँ है, वह बदले की भावना से है। इंगलैंड के पत्रों और मनुष्यों ने भारत के इस उत्थान को जिस विद्वेष, उपेक्षा और घृणा से देखा है, और समय-समय पर रेलों, बाजारों, क्लबों और अन्य स्थलों पर जैसे कमीने आक्रमण किए हैं, उसे निविकार भाव से सहना बड़े-से-बड़े सहिष्णु मनुष्य के लिये संभव नहीं । क्रोध एक स्वाभाविक वस्तु है, जो प्राणी के साथ रहता है। सच्चा और सतोगुणी क्रोध जिस मनुष्य को भृकुटी में नहीं, वह मनुष्य ही क्या ? स्वार्थ पर आघात होने अथवा अप्रिय आचरण होने पर प्राणी-मात्र के हृदय में क्रोधाग्नि प्रज्व- लित होती है। उसके बढ़ जाने पर विद्वेष का आचरण होता है। भारतवासियों के हृदयों में चिरकाल से अगरेज व्यक्ति-विशेषों के अन्यायाचरण अथवा सत्ता की स्वेच्छाचारिता से भीतर-ही-
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