तुलसी की भावुकता दांपत्य प्रेम का दृश्य भी गोस्वामीजी ने बहुत ही सुंदर दिखाया है, पर बड़ी ही मर्यादा के साथ । नायिकाभेदवाले कवियों का सा या कृष्ण की रासलीला के रसिकों का सा लोक-मर्यादा का उल्लंघन उसमें कहीं नहीं है । सीता-राम के परम पुनीत प्रणय की जो प्रतिष्ठा उन्होंने मिथिला में की, उसकी परिपक्वता जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं के बीच पति-पत्नी के संबंध की उच्चता और रमणीयता संघटित करती दिखाई देती है। अभिषेक के राम को वन जाने की आज्ञा मिलती है। आनंदोत्सव का सारा दृश्य करुण दृश्य में परिणत हो जाता है। राम वन जाने को तैयार हैं और वन के क्लेश बताते हुए सीता को घर रहने के लिये कहते हैं। इस पर सीता कहती हैं- बन-दुख नाथ कह बहुतेरे । भय-विषाद पारेताप धोरे ।। प्रभु-बियोग- लवलेस-समाना । सब मिलि होहिं न कृपानिवाना ।। कुस - किसलय - साथरी सुहाई । प्रभु सँग मंजु मनेाज-तुराई ॥ कंद-मूल - फल अमिय - अहारू । अवध-सौवसन-सरिस पहारू। मोहिमग चलत न होइहि हारी। छिन छिनु चान-सरोज निहारी ।। पायँ पखारि बैठि तरु • छाहीं । करिहै। बाउ मुदित मन माहों । बार बार मृदु मूरति जोही । लागिहि ताति बयारि न मेोही ।। दुःख की परिस्थिति में सुख की इस कल्पना के भीतर हम जीवन-यात्रा में श्रांत पथिक के लिये प्रेम की शोतल सुखद छाया देखते हैं। यह प्रेम-मार्ग निराला नहीं है, जीवन-यात्रा के मार्ग से अलग होकर जानेवाला नहीं है। यह प्रेम कर्मक्षेत्र से अलग नहीं करता, उसमें बिखरे हुए काँटों पर फूल बिछाता है। राम-जानकी को नंगे पाँव चलते देख ग्रामवासी कहते हैं- जो जगदीस इनहिं बन दीन्हा । सुमनमय मारग कीन्हा॥ कस
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