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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१०३

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. १०२ गोस्वामी तुलसीदास चेष्टाओं का उद्देश्य किसी भाव की व्यञ्जना करना होता है। पर 'हावा' का सन्निवेश विसी भाव की व्यजना कराने के लिये नहीं होता, बल्कि नायिका का मोहक प्रभाव बढ़ाने के लिये. अर्थात उसकी रमणीयता की वृद्धि के लिये, होता है। जिसकी रमणीयता या चित्ताकर्षकता का वर्णन या विधान किया जाता है, वह 'आलंबन होता है। अत: 'हाय' नामक चेष्टाएँ प्रालंबन-गत ही मानी जायँगी और बालंबन-गत होने के कारण उनका स्थान 'विभाव' के अंतर्गत ही ठहरता है। अब विचार करना चाहिए कि सीताजी की उक्त चेष्टाएँ 'अनुभाव' होंगी या 'हाव' । लक्षण के अनुसार "संभोगेच्छा- प्रकाशक भ्रनेत्रादि-विकार" ही 'हाव' कहलाते हैं। पर सीताजी के विकार इस प्रकार के नहीं हैं। वे विकार राम के साथ अपने संबंध की भावना से उत्पन्न हैं और उनके प्रति प्रेम की व्यंजना करते हैं। इस प्रकार प्राश्रय की चेष्टाएँ होने के कारण वे विकार 'अनुभाव' ही होंगे। सीता-हरण होने पर इस प्रेम को हम एक ऐसे मनोहर क्षेत्र का द्वार खोलते हुए पाते हैं जिसमें बल और पराक्रम अपनी परमावस्था को पहुँचकर अनीति और अत्याचार का ध्वंस कर देता है। वन में सीता का वियोग चारपाई पर करवटें बदलवानेवाला प्रेम नहीं है- चार कदम पर मथु गए हुए गोपाल के लिये गोपियों को बैठे बैठे रुलानेवाला वियोग नहीं है, झाड़ियों में थोड़ी देर के लिये छिपे हुए कृष्ण के निमित्त राधा की आँखों से अाँसुओं की नदी बहानेवाला वियोग नहीं है-यह राम को निर्जन वनों और पहाड़ों में घुमाने- वाला, सेना एकत्र करानेवाला. पृथ्वी का भार उतरवानेवाला वियोग है। इस वियोग की गंभीरता के सामने सूरदास द्वारा अंकित वियोग अतिशयोक्ति-पूर्ण होने पर भी बालक्रीड़ा सा लगता है ।