सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२३
तुलसी की भावुकता

तुलसी की भावुकता १२३ से वे कुछ मुँहलगे हो जाते हैं और कभी कभी ऐसी बातें भी कह है अब ली करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते । अब तुलसी पूतरो बांधिहै सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ पर ऐसी गुस्ताखी कभी नहीं करते कि "आपने करम भवनिधि पार करौं जो तो हम करतार, करतार तुम काहे के ?" देखिए, संसार की अशांति का चित्र कैसा मर्मस्पर्शी और प्राकृतिक जीवन व्यापार उपलक्षण के रूप में चुनकर वे अंकित करते हैं- डासत ही गई बीति निसा सब कबहुँ न, नाथ ! नींद भरि सोयो । ( २ ) प्रस्तुत व्यापार के स्थान पर उसी के सदृश अप्रस्तुत व्यापार चुनने में भी गोस्वामीजी ने प्रभावोत्पादक प्राकृतिक दृश्यों की परख का पूर्ण परिचय दिया है। प्रेमभाव का उत्कर्ष दिखाने के लिये उन्होंने चातक और मीन को पकड़ा है। दोहावली के भीतर चातक की अन्योक्तियाँ प्रेमी भक्तों के हृदय का सर्वस्व हैं। यही चातकता और मीनता वे जीवन भर चाहते रहे-"करुणानिधान ! बरदान तुलसी चहत सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता।" अन्योक्ति आदि के लिये भी वे तत्काल हृदय में चुभनेवाला दृश्य लाकर खड़ा कर देते हैं। इससे प्रस्तुत विषय के संबंध में जो भाव उत्पन्न करना इष्ट होता है, वह भाव थोड़ी देर के लिये अवश्य उत्पन्न होता है। प्रासादों में सुख से रहनेवाली सीता वन में कैसे रह सकेगी- नव-साल-बन-बिहरन-सीजा । सेोह कि कोकिल बिपिन करीला ।।