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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१३६

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शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण

। शोल-निरूपण और चरित्र-चित्रण और प्रेम की पराकाष्ठा को पहुँचते हुए पाते हैं। सत्य की रक्षा उन्होंने प्रिय पुत्र को बनवाम देकर और स्नेह की रक्षा प्राण देकर की। यही उनके चरित्र की विशेषता है-यही उनके जीवन का महत्त्व है। नियम और शील धर्म के दे अंग हैं। नियम का संबंध विवेक से है और शील का हृदय से । सत्य बोलना, प्रतिज्ञा का पालन करना नियम के अंतर्गत है। दया, क्षमा वात्सल्य, कृतज्ञता आदि शील के अंतर्गत हैं। नियम के लिये आचरण ही देखा जाता है. हृदय का भाव नहीं देखा जाता । कंबल नाम की इच्छा रखनेवाला पाषंडी भी नियम का पालन कर सकता है और पूरी तरह कर सकता है। पर शील के लिये सात्त्विक हृदय चाहिए। कभी कभी ऐसी विकट स्थिति आ पड़ती है कि एक को गह देने से दूसरे का उल्लंघन अनिवार्य हो जाता है। किसी निरपराध को फाँसी हुआ चाहती है। हम देख रहे हैं कि थोड़ा सा झूठ बोल देने से उसकी रक्षा हो सकती है। अत: एक ओर तो दया हमें झूठ बोलने की प्रेरणा कर रही है। दूसरी ओर 'नियम' हमे ऐसा करने से रोक रहा है। इतने भारी शील-साधन के सामने ना हमें अवश्य नियम शिथिल कर देना पड़ता है। पर जहाँ शीलपक्ष इतना ऊँचा नहीं है, वहाँ उभयपक्ष की रक्षा का मार्ग ढूँढ़ना पड़ेगा। 'दशरथ के सामने दोनों पक्ष प्रायः समान थे-बल्कि यो कहिए कि नियम की ओर का पलड़ा कुछ झुकता हुआ था । एक ओर तो सत्य की रक्षा थी, दूसरी ओर प्राण से भी अधिक प्रिय पुत्र का स्नेह । पर पुत्र-वियोग का दुःख दशरथ के ही ऊपर पड़नेवाला था दुःख को भी परिजन का दुःख समझकर दशरथ का ही दुःख समझिए )। इससे अपने ऊपर पड़नेवाले दुःख के डर से सत्य का त्याग उनसे न करते बना। उन्होंने सत्य की रक्षा की, फिर अपने ऊपर पड़नेवाले दुःख की परमावस्था को पहुँचकर ( कौशल्या के 1 9