, १७० गोस्वामी तुलसीदास पहले गोचर-प्रत्यक्षीकरण करके बोध-वृत्ति की कुछ सहायता करता है, तब फिर रागात्मिका वृत्ति को उत्तेजित करता है। जैसे, यदि कोई आनेवाली विपत्ति या अनिष्ट का कुछ भी ध्यान न करकं अपने रंग में मस्त रहता हो और कोई उसको देखकर कहे कि-"चरै हरित तृन बलि-पसु जैसे" तो इस कथन से उसकी दशा का प्रत्यक्षीकरण कुछ अधिक हो जायगा जिससे उसमे भय का संचार पहले से कुछ अधिक हो सकता है। 'भव-बाधा' कहने से कोई विशेष रूप सामने नहीं आता. सामान्य अर्थ-ग्रहण मात्र हो जाता है। इससे गोस्वामीजी उसे व्याल का गोचर रूप देते हुए 'परिकरांकुर' का अवलंबन करते हुए कहते हैं- तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तब सरन उरग-रिपु-गामी ॥ इसी प्रकार कैकेयो की भीषणता सामने खड़ी की गई है- लखी नरेस बात यह साँची । तिय मिस मीच सीस पर नाची॥ (३) क्रिया का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलकार क्रिया और गुण का अनुभव तीव्र कराने के लिये प्रस्तुत- अप्रस्तुत वस्तु के बीच या तो 'अनुगामी' ( एक ही ) धर्म होता है, या 'वस्तु-प्रति-वस्तु' या उपचरित। सीधी भाषा में यों कह सकते हैं कि अलंकार के लिये लाई हुई वस्तु और प्रसंग-प्राप्त वस्तु का धर्म या तो एक ही होता है, या अलग अलग कहे जाने पर भी दोनों के धर्म समान होते हैं; अथवा एक के धर्म का उपचार दूसरे पर किया जाता है; जैसे, उसका हृदय पत्थर के समान देखिए, केवल क्रिया की तीव्रता का अनुभव कराने के लिये इस 'ललितोपमा' का प्रयोग हुआ मारुतनंदन मारुत को, मन को, खगराज को बेग लजायो। .. sho
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