राम॥ १७२ गोस्वामी तुलसीदास कामिहि नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रि। जिमि दाम । तिमि रघुवंस निरंतर, प्रिय लागहु मोहि नीचे लिखे 'रूपक' मे उपमान और उपमेय का अनुगामी (एक ही) धर्म बड़ी ही सुंदर रीति से आया है- नृपन करि श्रासा-निसि नासी । बचन-नखत-अवली न प्रकासी ॥ मान महिप-कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने॥ इसमें ध्यान देने की पहली बात यह है कि केवल क्रिया का सादृश्य है, रूप आदि का कुछ भी सादृश्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि यद्यपि यहाँ 'सकुचना' और 'लज्जित होना' आए हैं, पर रूपक का उद्देश्य इन भावों का उत्कर्ष दिखाना नहीं है, बल्कि एक साथ इतनी भिन्न भिन्न क्रियाओं का होना ही दिखाना है। एक ही क्रिया का संबंध अनेक पदार्थों से दिखाती हुई यह 'तुल्ययोगिता' भी बड़ी ही सटीक बैठी है- सब कर संसय अरु अग्यानू । मंद महीपन कर अभिमानू ॥ भृगुपति केरि गर्व गराई । सुर-मुनि बरन केरि कदराई ॥ सिय कर सोच, जनक-रितापा । रानिन कर दान-दुख-दापा ॥ संभुचाप बड़ बोहित पाई। चड़े जाइ सब संग चनाई । प्रबंध-धारा के बीच यह अलंकार ऐसा मिला हुआ है कि ऊपर से देखने में इसकी अलंकारता प्रकरण से अलग नहीं मालूम होती। 'बोहित' को छोड़ और कोई सामग्री कवि-प्रतिभा-प्रदत्त या ऊपर से लाई हुई नहीं है। हाँ, वस्तुओं की जो सुंदर योजना है, वह अवश्य कवि की प्रतिभा का फल है। यही प्रतिभा कवि को प्रबंध-रचना का अधिकार देती है; कौतुकी कवियों की वह प्रतिभा नहीं जो पंचवटी की शोभा के वर्णन के समय प्रलय-काल के बारहों सूर्य उतार लाती है। प्राप्त प्रसंग के गोचर-प्रगोचर सब पक्षों तक जिसकी दृष्टि पहुँचती है, किसी परिस्थिति में अपने को डालकर
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