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हिन्दी-साहित्य में गोस्वामीजी का स्थान


पता ही नहीं। वह प्रबंध-पटुता भी उनमें नाम को नहीं जिससे कथानक का संबंध-निर्वाह होता है। उनकी रामचंद्रिका फुटकर पद्यों का संग्रह सी जान पड़ती है। वीरसिहदेव-चरित में उन्होंने अपनी हृदय-हीनता की ही नहीं, प्रबंध-रचना की भी पूरी असफलता दिखा दी है। बिहारी रीति-ग्रंथों के सहारे जबरदस्ती जगह निकाल निकालकर दोहों के भीतर श्रृंगाररस के विभाव-अनुभाव और संचारी ही भरते रहे। केवल एक ही महात्मा और हैं जिनका नाम गोस्वामीजी के साथ लिया जा सकता है और लिया जाता है। वे हैं प्रेमस्रोत-स्वरूप भक्तवर सूरदासजी। जब तक हिंदी-साहित्य और हिंदी-भाषी हैं, तब तक सूर और तुलसी का जोड़ा अमर है। पर, जैसा कि दिखाया जा चुका है, भाव और भाषा दोनों के विचार से गोस्वामीजी का अधिकार अधिक विस्तृत है। किसने 'यमक' के लोभ से यह दोहा कह डाला कि "सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास'। यदि कोई पूछे कि जनता के हृदय पर सबसे अधिक विस्तृत अधिकार रखनेवाला हिंदी का सबसे बड़ा कवि कौन है तो उसका एक मात्र यही उत्तर ठीक हो सकता है कि भारत-हृदय, भारती-कंठ भक्त-चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास।


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