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गोस्वामी तुलसीदास


हारिक दृष्टि में लोक-रक्षा और लेाक-रंजन करता दिखाई पड़े अर्थात् जो उच्च और धर्ममय हो । इसी उच्च की ओर उठकर जब हृदय उमंग से भरता है तब उसमें दिव्यकला का प्रकाश होता है-

उरवी परि कल-हीन होइ, ऊपर कला-प्रधान ।
तुलसी देख्खु कलाप-गति, साधन घन पहिचान ।।

जब तक मोर की पूँछ के पंख जमीन पर लुढ़ते चलते हैं तब तक वे कलाहीन रहते हैं पर जब लोक-रक्षक और लोक-रंजक मेघ को देख मयूर उमंग से भर जाता है और पंख ऊपर उठ जाते हैं तब वे कलापूर्ण होकर जगमगा उठते हैं। जिस उपासना में उपास्य का स्वरूप मेघ के आदर्श तक पहुँचा हुआ न होगा उसके प्रति तुलसी की सहानुभूति न होगी। इस प्रकार उनकी उपासना-संबंधिनी उदारता की एक हद हो जाती है। भूत-प्रेत पूजनेवालों के प्रति उनका यह उदार भाव नहीं था कि जो अपनी विद्या-बुद्धि के अनुसार परोक्ष शक्ति की जिस रूप में भावना कर सकता है उसका उसी रूप में उपासना करना ठीक है-वह उपासना तो करता है। भूत-प्रेत पूजनेवालों की गति तो वे वैसी ही बुरी बताते हैं, जैसी किसी दुष्कर्म से होती है-

जे परिहरि हरि-हर-चरन भजहिं भूतगन घोर ।।
तिन्हकै गति मोहि देउ बिधि जो जननी-मत मोर ।।

फिर भी उनकी यह अनुदारता उस कट्टरपन के दरजे को नहीं पहुँची है जिसके जोश में अँगरेज कवि मिल्टन ने प्राचीन सभ्य जातियों के उपास्य देवताओं को जबरदस्ती खींचकर शैतान की फौज में भरती किया है-उस कट्टरपन के दरजे को नहीं पहुंची है जो दूसरे धर्मों की उपासना-पद्धति (जैसे, मूर्ति-पूजा ) को गुनाहों की फिहरिस्त में दर्ज करती है। गोस्वामीजी का विरोध तो इस सिद्धांत पर है कि जो जिसकी उपासना करता है, उसका आचरण भी उसी के अनुरूप रहता है।