तुलसीदासजी यद्यपि राम के अनन्य भक्त थे. पर लोक-रीति के अनुसार अपने ग्रंथों में गणेशवंदना पहले करके तब वे आगे चले हैं। सूरदासजी ने 'हरि हरि हरि हरि सुमिरन कग" से ही ग्रंथ का प्रारंभ किया है। तुलसीदासजी की अनन्यता सूरदास से कम नहीं थी, पर लोक-मर्यादा की रक्षा का भाव लिए हुए थी । सूर- दासजी की भक्ति में लोक-संग्रह का भाव न था । पर हमारे गोस्वामीजी का भाव अत्यत व्यापक था-वह मानव-जीवन के सब व्यापारों तक पहुँचनेवाला था राम की लीला के भीतर वे जगत् के सारे व्यवहार और जगत् के सारे व्यवहारों के भीतर राम की लीला देखते थे। पारमार्थिक दृष्टि से तो सारा जगत् राममय है, पर व्यावहारिक दृष्टि से उसके राम और रावण दो पक्ष हैं। अपने स्वरूप के प्रकाश के लिये मानों राम ने रावण का असत् रूप खड़ा 'मानस' के प्रारंभ में सिद्धांत-कथन के समय तो वे "सियाराम-मय सब जग जानी" सबको “सप्रेम प्रणाम करते हैं, पर आगे व्यवहार-क्षेत्र में चलकर वे रावण के प्रति 'शठ' आदि बुरे शब्दों का प्रयोग करते हैं। भक्ति के तत्त्व को हृदयंगम करने के लिये उसके विकास पर ध्यान देना आवश्यक है। अपने ज्ञान की परिमिति के अनुभव के साथ साथ मनुष्य जाति आदिम काल से ही आत्मरक्षा के लिये परोक्ष शक्तियों को उपासना करती आई है। इन शक्तियों की भावना वह अपनी परिस्थिति के अनुरूप ही करती रही। दुःखों से बचने का प्रयत्न जीवन का प्रथम प्रयत्न है। इन दुःखों का आना न आना बिलकुल अपने हाथ में नहीं है, यह देखते ही मनुष्य ने उनको कुछ परोक्ष शक्तियों द्वारा प्रेरित समझा। अत: बलिदान आदि द्वारा उन्हें शांत और तुष्ट रखना उसे आवश्यक दिखाई पड़ा। इस आदिम उपासना का मूल था "भय। जिन देवताओं की
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