. लोक-नीति और मर्यादावाद धर्म हुआ, उसी प्रकार जनता की रक्षा, उसके दुःख से सहानुभूति आदि भी। और वों के लिये जिस प्रकार अपने नियत व्यवमायों का संपादन कर्तव्य ठहराया गया, उसी प्रकार अपने से ऊँचे कर्तव्य- वालों अर्थात् लोकरक्षा द्वारा भित्र भिन्न व्यवसायों का अवसर देने- वालों के प्रति आदर-सम्मान का भाव भी। वचन व्यवस्था और भाव- व्यवस्था के बिना कर्म-व्यवस्था निष्फल होती। हृदय का योग जव तक न होगा, तब तक न कर्म सच्चे होंगे, न अनुकूल वचन निकलेंगे। परिवार में जिस प्रकार ऊँची-नीची श्रेणियाँ होती हैं, उसी प्रकार शील, विद्या बुद्धि, शक्ति आदि की विचित्रता से समाज में भी नीची- ऊँची श्रेणियाँ रहेंगी। कोई आचार्य होगा कोई शिष्य, कोई राजा होगा कोई प्रजा, कोई अफसर होगा कोई मातहत, कोई सिपाही होगा कोई सेनापति । यदि बड़े छोटों के प्रति दुःशील होकर हर समय दुर्वचन कहने लगें, यदि छोटे बड़ों का आदर-सम्मान छोड़कर उन्हें आँख देखाकर डाँटने लगें तो समाज चल ही नहीं सकता। इसी से शूद्रों का द्विजों को आँख दिखाकर डाँटना, मूखों का विद्वानों का उपहास करना गोस्वामीजी को समाज की धर्म-शक्ति का ह्रास समझ पड़ा। ब्राह्मणों की मति को 'मोह, मद, रिस, राग और लाभ' यदि निगल जायँ, राजसमाज यदि नीतिविरुद्ध आचरण करने लगे, यदि ब्राह्मणों को आँख दिखाने लगें, अर्थात् अपने अपने धर्म से समाज की सब श्रेणियाँ च्युत हो जाय, तो फिर से लोकधर्म की स्थापना कौन कर सकता है ? गोस्वामीजी कहते हैं 'राज्य' 'सुराज्य' 'रामराज्य' । राज्य की कैसी व्यापक भावना है ! आदर्श राज्य केवल बाहर बाहर कर्मों का प्रतिबंधक और उत्तेजक नहीं है, हृदय को स्पर्श करनेवाला है, उसमें लोकरक्षा के अनुकूल भावों को प्रतिष्ठा करनेवाला है। यह धर्मराज्य है-इसका प्रभाव जीवन के छोटे- - .
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