जरूरी समझेगे। उन्हें यह जानना चाहिए कि तुलसीदासजी कट्टर मर्यादावादी थे, कार्यक्षेत्रों के प्राचीन विभाग के पूरे समर्थक थे। पुरुषों की अधीनता में रहकर गृहस्थी का कार्य सँभालना ही वे स्त्रियों के लिये बहुत समझते थे। उन्हें घर के बाहर निकालन- वाली स्वतंत्रता को वे बुरा समझते थे । पर यह भी समझ रखना चाहिए कि 'जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी' कहते समय उनका ध्यान ऐसी ही स्त्रियों पर था जैसी कि साधारणत: पाई जाती हैं, गार्गी और मैत्रेयी की ओर नहीं। उन्हें गार्गी और मैत्रेयी बनाने की चिता उन्होंने कहीं प्रकट नहीं की है। हाँ, भक्ति का अधिकार जैसे सबको है, वैसे ही उनको भी। मीराबाई को लिखा हुआ जो पद ( विनय का ) कहा जाता है, उससे प्रकट होता है कि 'भक्तिमार्ग' में सबको उत्साहित करने के लिये वे तैयार रहते थे। इसमें वे किसी बात की रियायत नहीं रखते थे। रामभक्ति में यदि परिवार या समाज बाधक हो रहा है, तो उसे छोड़ने की राय वे बेधड़क देंगे—पर उन्हीं को जिन्हें वे भक्तिमार्ग में पक्का समझेगे . सब स्त्रियाँ घरों से निकलकर वैरागियों की सेवा में लग जाय यह अभिप्राय उनका कदापि नहीं। स्त्रियों के लिये साधारण उपदेश उनका वही समझना चाहिए जो 'ऋषि-वधू' ने 'सरल मृदु बानी' से सीताजी को दिया था। उन पर स्त्रियों की निंदा का महापातक लगाया जाता है; पर यह अपराध उन्होंने अपनी विरति की पुष्टि के लिये किया है। उसे उनका वैरागीपन समझना चाहिए। सब रूपों में स्त्रियों की निदा उन्होंने नहीं की है। केवल प्रमदा या कामिनी के रूप में, दांपत्य- रति के आलंबन के रूप में, की है;-माता, पुत्री, भगिनी आदि के रूप में नहीं। इससे सिद्ध है कि स्त्री-जाति के प्रति उन्हें कोई द्वेष नहीं था। अत: उक्त रूप में स्त्रियों की जो निदा उन्होंने की है, वह
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