पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६१

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लोक नीति और मर्यादावाद

लिये। . , लोक-नीति और मर्यादाव करते हैं। वे प्रसंग विशेष में कवि के भीतरी उद्देश्य की खोज न करके केवल शब्दार्थ ग्रहण करके तर्क-वितर्क करते हैं स्थान पर वे कहते हैं- "सठ सुधरहि सनसंगति पाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ।।" फिर दूसरे स्थान पर कहते हैं- "नीच निवाई नहि तजें जो पावै सतसंग ।" इनमें से प्रथम उक्ति सत्संग की महिमा हृदयंगम कराने के लिये कही गई है और दूसरी उक्ति नीच या शठ की भीषणता दिखाने के एक का उद्देश्य है सत्संग की स्तुति और दूसरी का दुर्जन की निंदा। अत: ये दोनों कथन सिद्धांतरूप में नहीं हैं, अर्थवाद के रूप में हैं । ये पूर्ण सत्य नहीं हैं, अांशिक सत्य हैं, जिनका उल्लेख कवि, उपदेशक आदि प्रभाव उत्पन्न करने के लिये करते हैं। काव्य का उद्देश्य शुद्ध विवेचन द्वारा सिद्धांत-निरूपण नहीं होता, रसो- स्पादन या भाव-संचार होता है। बुद्धि की क्रिया की कविजन आंशिक सहायता ही लेते हैं। अब रहे शूद्र । समाज चाहे किसी ढंग का हो, उसमें छोटे काम करनेवाले तथा अपनी स्थिति के अनुसार अल्प विद्या, बुद्धि, शील और शक्ति रखनेवाले कुछ न कुछ रहेंगे ही। ऊँची स्थितिवालों के लिये जिस प्रकार इन छोटी स्थिति के लोगों की रक्षा और सहा- यता करना तथा उनके साथ कोमल व्यवहार करना आवश्यक है, उसी प्रकार इन छोटी स्थितिवालों के लिये बड़ी स्थितिवालों के प्रति आदर और सम्मान प्रदर्शित करना भी। नीची श्रेणी के लोग यदि अहंकार से उन्मत्त होकर ऊँची श्रेणी के लोगों का अपमान करने पर उद्यत हो, तो व्यावहारिक दृष्टि से उच्चता किसी काम की न रह जाय। विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम, शील और वैभव यदि अकारण अपमान से कुछ अधिक रक्षा न कर सकें तो उनका सामा-