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शील-साधना और भक्ति

सूर सुजान सपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुमाई।
बिनु हरिभजन इंदारुन के फल तजत नहीं करुआई।।
कीरति कुल करतूति भूति भलि, लील सरूप सलोने।
तुलसी प्रभु अनुराग-रहित जस सालन साग सलोने।।

भक्ति की आनंदमयी प्रेरणा से शील की ऊँची से ऊँची अवस्था की प्राप्ति आप से आप हो जाती है और मनुष्य 'संत' पद को पहुँच जाता है। इस प्रेरणा में रूप, गुण, शील, बल सब के प्रभाव का योग रहता है। इसी प्रकार के प्रभाव से—

भए सब साधु किरात किरातिनि, रामदरस मिटि गइ कलुषाई।।

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