पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/९

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तुलसी की भक्ति-पद्धति

हमारे यहाँ ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और योगमार्ग तीनों अलग अलग रहे हैं। ज्ञानमार्ग शुद्ध बुद्धि की स्वाभाविक क्रिया अर्थात् चिंतन-पद्धति का आश्रय लेता है. भक्ति-मार्ग शुद्ध हृदय की स्वाभाविक अनुभूतियों अर्थात् भावों को लेकर चलता है; योगमार्ग चित्त की वृत्तियों को अनेक प्रकार के अभ्यासों द्वारा अस्वाभाविक ( abnormal ) बनाकर अनेक प्रकार की अलौकिक सिद्धियों के बीच होता हुआ अंत:स्थ ईश्वर तक पहुँचना चाहता है। इस स्पष्ट विभाग के कारण भारतीय परंपरा का भक्त न तो पारमार्थिक ज्ञान का दावा करता है, न अलौकिक सिद्धि या रहस्य-दर्शन का। तत्त्वज्ञान के अधिकारी तर्कबुद्धि-संपन्न चिंतनशील दार्शनिक ही माने जाते थे। सूर और तुलसी के संबंध में यह अवश्य कहा जाता है कि उन्होंने भगवान् के दर्शन पाए थे पर यह कोई नहीं कहता कि शंकराचार्य और रामानुज भी ज्ञान की जिस सीमा तक नहीं पहुँचे थे उस सीमा तक वे पहुंचे थे। भारतीय पद्धति का भक्त यदि झूठा दावा कर सकता है तो यही कि मैं भगवान् के ही प्रेम में मग्न रहता हूँ; यह नहीं कि जो बात कोई नहीं जानता वह मैं जाने बैठा हूँ। प्रेम के इस झूठे दावे से, इस प्रकार के पाषंड से, अज्ञान के अनिष्ट प्रचार की आशंका नहीं।

भारतीय भक्त का प्रेम-मार्ग स्वाभाविक और सीधा-सादा है जिस पर चलना सब जानते हैं, चाहे चलें न। वह ऐसा नहीं जिसे कोई बिरला ही जानता हो या पा सकता हो। वह तो संसार में सबके लिये ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल——


  • यह जनश्रुति है कि तुलसीदासजी को चित्रकूट में राम की एक झलक जंगल के बीच में मिली थी। इसका कुछ संकेत सा विनयपत्रिका के इस पद में मिलता है——"तुलसी तो को कृपाल जो कियो कोसलपाल चित्रकूट को चरित्र चेतु चित करि सो।"