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पृष्ठ:गो-दान.djvu/१०९

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गो-दान
 

और बिना उसे खिलाये कौर मुंह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुन्दर होगा। अभी से उसका नाम-करण हो गया था––मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे।

मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आखिर धनिया को किसी तरह राजी़ कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है; लेकिन विपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-सी बड़ी बात है। ऐसा न हो, तो लोग विपत से इतना डरे क्यों। गोबर ने भी विशेष आपत्ति न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया गया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जाये, तो गाय झिंगुरीमिह के पास पहुँचा दी जाय।

दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयी। गोबर इस करण दृश्य से भागकर कहीं चला गया था। वह गाय को जाने कैसे देख सकेगा? अपने आंसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही में कठोर बना हुआ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नही, जो इस वक्त उसे पचीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रूपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर बड़ा हुआ तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली सजीव आँखों में आंसू भरे हुए है और वह कह रही है––क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूंगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुममे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर सन्तुष्ट हो गयी। बोलो।

धनिया ने कहा––लड़कियाँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते। जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो।

होरी ने काँपते हुए स्वर मे कहा––मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुंह नही देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूंगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायेंगे। तीन-चार सौ होते ही क्या है। एक बार ऊख लग जाय।

धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा––और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उमे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायेंगे वैसे इसे भी चुका देंगे।

भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बन्द थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाये हुए थे; पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहां लिये जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला––बाहर हवा में बाँधे देता हूँ। आराम से रहेगी। उसके भी तो जान है। गाय बाँधकर वह अपने मंझले भाई शोभा को देखने गया। शोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रवन्ध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर;