सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गो-दान.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गो-दान
११७
 

'कैसा आदमी है?'

‘बहुत ही ग़रीब हुजूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं!'

'सच?'

'हाँ हुजूर,ईमान से कहता हूँ।'

'अरे तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?'

'कहाँ की बात हुजूर!दस मिल जायें,तो हज़ार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।'

दारोगा़जी ने एक मिनट तक विचार करके कहा--तो फिर उसे सताने में क्या फ़ायदा। मैं ऐसों को नहीं सताता,जो आप ही मर रहे हों।

पटेश्वरी ने देखा,निशाना और आगे जा पड़ा। बोले---नही हुजूर,ऐसा न कीजिए,नही फिर हम कहाँ जायँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?

'तुम इलाके के पटवारी हो जी,कैसी बातें करते हो?'

'जब ऐसा ही कोई अवसर आ जाता है,तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं। नहीं पटवारी को कौन पूछता है।

'अच्छा जाओ,तीस रुपए दिलवा दो;बीस रुपए हमारे, दम रुपा तुम्हारे।'

'चार मुग्विया है,इसका ख्याल कीजिए।'

'अच्छा आधे-आध पर रखो,जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।'

पटेश्वरी ने झिगुरी से कहा,झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया,अपने घर ले गये,तीस रुपए गिनकर उसके हवाले किये और एहसान से दबाते हुए बोले--आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुंँह देखकर रुपए दे रहा हूंँ,तुम्हारी भलमंसी पर।

होरी ने रुपए लिये और अंँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न मुख आकर दारोगा़जी की ओर चला।

सहसा धनिया झपटकर आगे आयी और अंँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गयी और सारे स्पए जमीन पर बिख़र गये। नागिन की तरह फुँकारकर बोली--ये रुपए कहाँ लिये जा रहा है, बता। भला चाहता है,तो सब रुपए लौटा दे,नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें,लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंँजुली-भर रुपए लेकर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत! जिसके घर में चूहे लोटें,वह भी इज्जतवाला है! दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गयी,उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत!

होरी खून का घूँट पीकर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गये। दारोगा का मुंँह ज़रा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी।

होरी स्तम्भित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी,आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाये!