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पृष्ठ:गो-दान.djvu/१४०

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गो-दान
१३९
 

'न जाऊँगी।

'न जायगी?'

'न जाऊँगी।

पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गयी।

पुरुष ने हारकर कहा-मैं फिर कहता हूँ,उठकर चल।

स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा-मैं तेरे घर सात जनम न जाऊँगी,बोटी-बोटी काट डाल।

'मैं तेरा गला काट लूंगा।'

'तो फाँसी पाओगे।'

पुरुष ने उसके केश छोड़ दिये और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। पुरुपत्व अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। इसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है।

एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त स्वर में बोला-आखिर तू क्या चाहती है?

युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली-मैं यही चाहती हूँ,तू मुझे छोड़ दे।

'कुछ मुंह से कहेगी,क्या बात हुई?'

'मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे?'

'किसने गाली दी,तेरे भाई-बाप को?'

'जाकर अपने घर में पूछ!'

'चलेगी तभी तो पूछूगा?'

'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्माँ के आँचल में मुंह ढाँककर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूं? एक रोटी खाती हूँ,तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!'

राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनन्द आ रहा था;मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंज़िल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ,तो बोला--भाई,मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए,मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।

पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकालकर कहा--तुम कौन हो?

गोबर ने निःशंक भाव से कहा-मैं कोई हूँ;लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है।

पुरुष ने सिर हिलाकर कहा-मालूम होता है,अभी मेहरिया नहीं आयी,तभी इतना दर्द है!

'मेहरिया आयेगी,तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खींचूंगा।'

'अच्छा तो अपनी राह लो। मेरी औरत है,मैं उसे मारूंगा,कालूंगा। तुम कौन होते हो बोलनेवाले! चले जाओ सीधे से,यहाँ मत खड़े हो।'