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गो-दान
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ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो,मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ। हाँ,मुझे उसका बाल पकड़कर घसीटना न था;लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है,माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो,कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ। अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाय।'

गोबर को भी अपनी राय बदलनी पड़ी। बोला-माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है?

कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं न कहीं टिकना ही पड़ेगा।

गोबर ने विनोद किया--लुगाई मान गयी?

'न मानेगी तो क्या करेगी।'

'मुझे तो उसने ऐसी फटकार बतायी कि मैं लजा गया।'

"वह खुद पछता रही है। चलो,जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को वाप-भाई की गाली क्यों देती हैं। हमारी ही बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी,तो उससे सुना जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी,तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठकर चली जाय;पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।'

गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आये जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी वन गयी थी। जरा-सा बूंघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी।

कोदई ने मुस्कराकर कहा-यह तो आते ही न थे। कहते थे,ऐसी डाँट गुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ?

युवती ने यूंघट की आड़ से गोबर को देखकर कहा-इतनी ही डाँट में डर गये? लुगाई आ जायगी,तब कहाँ भागोगे?

गाँव समीप ही था। गाँव क्या था,पुरवा था;दस-बारह घरों का,जिसमें आधे खपरैल के थे,आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँचकर खाट निकाली,उस पर एक दरी डाल दी,शर्बत बनाने को कह,चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्वत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे!


गोबर अंधेरे ही मुंह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है। इसलिए उससे कोई विवाह-सम्बन्धी चर्चा नहीं की।