पृष्ठ:गो-दान.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गो-दान
१४९
 

और आगे बढ़ी––'ची' बुलाने के लिए आप इतनी जबरदस्ती नहीं कर सकते।

मिर्ज़ा ने मेहता की पीठ पर हुमचकर कहा––बेशक़ कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें,'ची' बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ।

मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की; पर मिर्जा़ ने उनकी गर्दन दबा दी।

मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने की कोशिश करके कहा––यह खेल नहीं, अदावत है।

'अदावत ही सही।'

'आप न छोड़ेंगे?'

उसी वक्त जैसे कोई भूकम्प आ गया। मिर्ज़ा साहब ज़मीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हज़ारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका।

मिर्ज़ा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिये हुए शामियाने तक आये। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे––डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाज़ी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और धैर्य का बखान कर रहे थे।

मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मॅगा ली गयी थीं। उन्हें एक-एक नारंगी देकर बिदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्ज़ा एक ही मेज़ पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी।

मेहता ने कहा––मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।

मिर्ज़ा ने मालती की ओर देखा––अच्छा! यह बात थी! जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।

मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली––आप बड़े बेमुरौवत आदमी है मिर्ज़ाजी! मुझे आज मालूम हुआ।

'कुसूर इनका था। यह क्यों 'ची' नहीं बोलते थे?'

'मैं तो 'ची' न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।'

कुछ देर मित्रों में गप-शप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकबाद के भाषण हुए और मेहमान लोग बिदा हुए। मालती को भी एक विज़िट करनी थी। वह भी चली गयी। केवल मेहता और मिर्ज़ा रह गये। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे।

मिर्ज़ा ने पूछा––शादी कब तक होगी?

मेहता ने अचम्भे में आकर पूछा––किसकी?

'आपकी।'