रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था। पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपए पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कस्में खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था। और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा-ले जाओ महतो, तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छ: सेर दूध ले लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूं। साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या क़दर। मुझसे लेकर किसी हाकिमहुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब। वह तो खून चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुलभर भी भूसा नही रहा। रुपए सव बाजार में निकल गये। सोचा था महाजन से कुछ लेकर भूसा ले लेगे; लेकिन महाजन का पहला ही नही चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरो को क्या खिलाये, यही चिन्ता मारे डालती है। चुटकीचुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज का खरच है। भगवान ही पार लगाये तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर मे कहा--तुमने हमसे पहले क्यों नही कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा टोककर कहा-इसीलिए नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊँ। वॉटता कोई नही, हंसते सब है। जो गाये सूख गयी है उनका गम नहीं, पत्ती-सत्ती खिलाकर जिला लूंगा; लेकिन अब यह तो रानिव बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपए भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता है,इसमे सन्देह नही। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते है,भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घण्टों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नही आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है; खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती दूसरे ही पीते है; मेघों से वर्षा होती है,उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान। होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।