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गो-दान
 

शोभा बदल पड़ा। बोला-मेरे पास रुपये नहीं हैं;तुम्हें जो कुछ करना हो,कर लो।

पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा--ऊख बेची है कि नहीं?

'हाँ,वेची है।'

'तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख वेचकर रुपया दूंगा ?'

'हाँ,था तो।'

'फिर क्यों नहीं देते। और सब लोगों को दिये हैं कि नहीं?'

'हाँ,दिये हैं।'

'तो मुझे क्यों नहीं देते?'

'मेरे पास अब जो कुछ बचा है,वह वाल-बच्चों के लिए है।'

पटेश्वरी ने विगड़कर कहा--तुम रुपये दोगे शोभा,और हाथ जोड़कर और आज ही। हाँ,अभी जितना चाहो,वहक लो। एक रपट में जाओगे छ:महीने को,पूरे छः महीने को,न एक दिन वेस न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो,वह एक रपट में निकल जायगा। मैं ज़मीदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ,सरकार वहादुर का नौकर हूँ,जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मीदार दोनों का मालिक है।

पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इम धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तव होरी ने कहा--शोभा,इसके रुपये दे दो। समझ लो,ऊख में आग लग गयी थी। मैंने भी यही सोचकर,मन को समझाया है।

शोभा ने आहत कंठ से कहा-हाँ,दे दूंगा दादा! न दूंगा तो जाऊँगा कहाँ?

सामने से गिरधर ताड़ी पिये झूमता चला आ रहा था। दोनों को देखकर वोलाझिगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चवैना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया गिड़गिड़ाया;पर इस पापी को दया न आयी।

शोभा ने कहा-ताड़ी तो पिये हुए हो,उस पर कहते हो,एक पैसा भी न छोड़ा!

गिरधर ने पेट दिखाकर कहा--साँझ हो गयी,जो पानी की बूंद भी कंठ तले गयी हो,तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दवा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा,साल-भर पसीना गारा है,तो एक दिन ताड़ी तो पी लू;मगर सच कहता हूँ,नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा। हाँ,झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें वृव पिये हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका,बेबाकी हो गयी। बीस लिये,उसके एक सौ साठ भरे,कुछ हद है!

होरी घर पहुंचा,तो रूपा पानी लेकर दौड़ी,सोना चिलम भर लायी,धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुंह-हाथ धोये,कैसे चबेना खाये। ऐसा लज्जित और ग्लानित था,मानो हत्या करके आया हो।