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गो-दान
 

गोविन्दी के हृदय में आनन्द का कम्पन हुआ। समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली--ऐसी स्त्री की आप तारीफ़ करते हैं। मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है,वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।

मेहता ने आश्चर्य से कहा--आप उसका अपमान करती हैं।

'लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है।'

'वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुप्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।'

गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठी थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था,उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊंँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी।

उसी नशे में बोली--तो चलिए,मुझे उनके दर्शन करा दीजिए।

मेहता ने बालक के कपोलों में मुंँह छिपाकर कहा--वह तो यहीं बैठी हुई हैं।

'कहाँ,मैं तो नहीं देख रही हूँ।'

'उसी देवी से बोल रहा हूँ।'

गोविन्दी ने ज़ोर से कहक़हा मारा--आपने आज मुझे बनाने की ठान ली,क्यों?

मेहता ने श्रद्धानत होकर कहा--देवीजी,आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं,और मुझसे ज्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं जिनके प्रति मेरे मन मे श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ,वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ,आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।

गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आँसू निकल पड़े; इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी।

उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा--आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।

मेहता सरलता से हँसकर बोले-- क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंज़िल है।

'तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं। लेकिन आप यह भी जानते हैं,कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता?'

'जिसे संसार दुःख कहता है,वहाँ कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य,रूप और बल,विद्या और बुद्धि,ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें,कवि के लिए यहाँ ज़रा भी आकर्षण नहीं है,उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन