पृष्ठ:गो-दान.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गो-दान
२०१
 


कह चुका, मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जायँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिए, यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रुक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिन्ता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलवे के नीचे दबे पड़े हैं;उठने का नाम नहीं लेते,वह सामर्थ्य ही नहीं रही! जो शक्ति,जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी,सहयोग में,भाईचारे में,वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है,इस पर तो मुझे हँसी आती है। वह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है,जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहाँ जीवन है,क्रीडा है,चहक है,प्रेम है,वही ईश्वर है;और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है,ओठों पर मुस्कराहट न आये,आँखों में आंँसू न आये। मैं कहता हूँ,अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते,तो तुम मनुष्य नहीं हो,पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले,ज्ञान नहीं है,कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिए,मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही है,चलिए,मैं आपको पहुँचा दूंँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।

गोविन्दी ने कहा--मैं तो ताँगा लायी हूँ।

'ताँगे को यहीं से बिदा कर देता हूँ।'

मेहता तांँगे के पैसे चुकाकर लौटे,तो गोविन्दी ने कहा-- लेकिन आप मुझे कहाँ ले जायँगे?

मेहता ने चौंककर पूछा--क्यों,आपके घर पहुँचा दूंँगा।

'वह मेरा घर नहीं है मेहताजी!'

'और क्या मिस्टर खन्ना का घर है?'

'यह भी क्या पूछने की बात है? अब वह घर मेरा नहीं रहा। जहाँ अपमान और धिक्कार मिले,उसे मैं अपना घर नहीं कह सकती,न समझ सकती हूँ।'

मेहता ने दर्द-भरे स्वर में,जिसका एक-एक अक्षर उनके अन्तःकरण से निकल रहा था,कहा--नहीं देवीजी,वह घर आपका है,और सदैव रहेगा। उस घर की