२६० | गो-दान |
कुछ रस पाये थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में आती है।
'चल झूठे।'
'आँखों से न ताकती रही हो, लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था; बल्कि बुलाता था।'
'अच्छा रहने दो, बड़े आये अन्तरजामी बन के। तुम्हें बार-बार मँडराते देख के मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम ऐसे कोई बाँके जवान न थे।'
हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बन्द हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने फिर कहा––गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते। देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।
होरी निराश मन से बोला––वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था; लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊँ तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।
दुलारी ने कटाक्ष करके कहा––तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गये!
'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता।'
'मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच!'
'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँ, इन दामों महँगा नहीं हूँ।'
'तब धनिया से तो न बोलोगे?'
'नहीं, कहो कसम खाऊँ।'
'और जो बोले?'
'तो मेरी जीभ काट लेना।'
'अच्छा तो जाओ, घर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूंँगी।'
होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिये। भावावेश से मुंह बन्द हो गया।
सहुआइन ने पाँव खींचकर कहा––अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूंगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं हो; लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पंडित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं, इसे गाँव से निकालकर नहीं छोड़ा तो बाह्मन नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करते? बैठे-बैठाये झगड़ा मोल ले लिया।
'धनिया उसे रखे हुए है, मैं क्या करूँ।'
'सुना है, पंडित कासी गये थे। वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान् पण्डित है। वह पांच सौ माँगता है। तब परासचित करायेगा। भला, पूछो ऐसा अन्धेर कहीं हुआ है। जब धरम नष्ट हो गया, तो एक नहीं हजार परासचित करो, इससे क्या होता है। तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पियेगा, चाहे जितना परासचित करो।'